Skip to main content

Posts

Showing posts from January, 2016
 ' अच्छा  ये   बताओ  न कि इन साख के  पत्तों  पर  तुम  मेरा नाम  क्यों  लिखा  करते   हों '।    'ताकि मेरा नाम बदनाम हो  जाएं '।  
महिलो   बोगी  के  सबसे  लास्ट  और  पुरुष  बोगी  के  सबसे   शुरुआत;जब   मेट्रो   हिचकोले   खाती   तो  दो  बोगी  के  जोड़  पर  बैठे   हम  भी  और   करीब  आ  जाते। नजदीकी  के  इन्हीं   क्षणों   में,एक  बार  मैंने   उससे   पूछा  ' अच्छा!एक  बात  बताओ ' ' पूछो  !'।  उसने  ' अफीम  सागर' से  आँखें   हटाते   हुए   कहा । ' तुमने   इश्क   में   शहर   होना   पढ़ी   हैं ?' ' नहीं !!  मैंने  ' इश्क  कोई  न्यूज़   नहीं '  पढ़ी   हैं ' 'पर  इश्क   तो   न्यूज़   हैं !!'   मैंने   तपाक  से तर्क  शुरू  कर  दिया   था । 'अच्छा !  कैसे ?' वह मुस्कुराई  और  अमिताभ घोष को  समेटते   हुए  बोली।   ' चलो   इश्क   करके   देखते   हैं '।  
' ......... जानती   हो।जब  पिली  लाईन  पर  ग्रीन  पार्क  मेट्रो   स्टेशन   आता   हैं  न  तो   लगता   हैं   हम   दोनों  हरे-पिले मनमोहक पार्क  में   रोमांस  कर  रहें   हैं .......'   वह  तपाक  से बीच  में   ही  पूछ  बैठी  ' और  जब राजीव चौक  आता   हैं   तो ?'                                    

न ! बिल्कूल नहीं.

तुम कहते हो ! सहसा था यह न ! बिल्कूल नहीं यह तो धीमी लौ पर उबलता अदृश्य पानी था जिसे कभी न कभी तो बाहर आना ही था और तुम ! तुम कहते हो सहसा था,यह  न ! बिल्कूल नहीं क्या कभी सहसा उबले पानी में इतनी गर्मी देखी है तूने ! मैंने तो नहीं जा पूछ उस भुक्तभोगी से और भुक्तभोगी तो तुम भी दिखाते हो अब तरस तो तुम पे भी आता है जो खुद के अंदर जन्मे धीमे लौ को भी न महसूस कर सका और हाथ जला आया सहसा थोड़े ही था यह और तुम कहते हो सहसा था यह अरे अपने अंदर की गर्मी तो जानवर भी पहचान लेते हैं और और तुम हाथ जलाकर कहते हो सहसा था यह न बिल्कूल नहीं !!