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Showing posts from October, 2017
दार जी को कहानी सुनाने का बड़ा शौक था।इसलिए वे बोलते जाते।इस बात से अनभिज्ञ कि कोई उन्हें सुन भी रहा है या नहीं।जब घंटों वे खेत में काम किया करते और मैं उनके लिए पनपियाई लेकर जाता तब भी वे बोलते हुए मिलते।किसी को कुछ सुना रहे होते।मेरे लिए वहां कोई नहीं होता पर दार जी लगातार किसी से बात कर रहे होते।मसलन तामे जा रहे खेत की मिट्टी से या पास की झाड़ियों से।मैं भी वहाँ बैठा, उन्हें सुनता रहता।उनके खा लेने पर भी।पर दार जी को कभी फर्क ही नहीं पड़ा किसी के होने और न होने से।वे बस किसी काल की कोई कथा बोलते जाते।कोई आधा वाक्य, कोई आधी कविता या कोई छूटी हुई कहानी। #ACP #ImagethroughmyEyes

चोर के नाम पत्र.

प्रिय चोर, मुझे आपके समुदाय से हमदर्दी रही है। ऐसे वक्त में जब सरकार तक लूटने पर लगी हो, मेट्रो के फेयर अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हों, डीटीसी की हालत खस्ता हो, बेरोज़गारी हो और एक छुपी हुई अव्यवस्था भी चारों ओर कायम हो तो माना जा सकता है कि आपने कोई बड़ा जुर्म नहीं किया है। वैसे आपके प्रोफेशन का जो ग्लैमर है, मैं उससे भी प्रभावित होता हूं। आपका समुदाय तो मुख्यमंत्री तक की गाड़ी यूं ही गायब कर देता है, तो हम किस खेत की मूली हैं, हम तो और आसानी से कट सकते है। Google Photo मुझे याद है जब संत राम-रहीम पकड़े गए थे तो मैंने अपने आसपास के लोगों और सफर करते हुए बहुत से लोगों को उनके वैभव के बारे में बात करते हुए, यह कहते सुना था कि बाबागिरी भी अच्छी प्रोफेशन हो सकती है, ट्राइ करना चाहिए। जहां पूंजी ही ईमान को एक हद तक तय कर रही हो, वहां लोगों का ऐसा सोचना गलत हो सकता है क्या? पता नहीं। हां, पर आपके प्रोफेसन में अब और भी प्रगति होगी ऐसा मुझे लगता है। पिछली बार मेट्रो के फेयर बढ़ने से रोज़ाना लगभग दो लाख यात्रियों ने मेट्रो को बाय-बाय कहा था और इस बार की बढ़ोतरी तो और भी कमर तोड़नी वाली है।

"जिसके लिए जिया जा सके"

कोई अपने दरवाजे से बाहर निकलता है फिर बाहर की दुनिया शुरू होती है।अनन्त दुनिया।और कोई बाहर निकल कर बहुत दूर जा सकता है।बहुत दूर। पर क्या हर बार बाहर निकलनेे के बाद लौट आना ही किसी की नियति होती है? शाम को घर लौटते हुए नायिका अक्सर यही सोचती है।इतने बड़े शहर में कहीं उसका घर है।घर में एक छोटा सा उसका कमरा है।और कमरे में बहुत सी ऐसी चीज़ें है जो उसने एक-एक कर जुटाए है।एक घड़ी है जो निरंतर टिक-टिक करता हुआ कैलेंडर के दिन को महीनों और फिर सालों में बदलता जाता है।पर बाहर सबकुछ वैसा ही है।कुछ किताबों के दाहिने तरफ टेबल के किनारें एक लैम्प है जो नायिका के किसी सपने का एक कैरेक्टर भर लगता है।एक पंखा है जो छत से लटका नायिका की ओर झाँकता हुआ रोज नायिका से बातें करता रहता है।और कमरे के दूसरी गेट से सटा, जो बालकनी की ओर खुलती है, कुछ गमले रखे है जिसमें लगी फूल की तनाएँ बालकनी की ओर फैली है। कमरे में एक तरफ बेड के ठीक सामने कुछ फ़ोटो लगे है।पहली फ़ोटो अंजुना बिच की है, जिसके किनारे कोई लड़की ठेहुने पर गाल टिकाए बैठी अनंत की ओर देख रही है, अनंत जहाँ समुद्र का किनारा आकाश से मिलता होगा।।दूसरी फ़ोटो,

हम दोनों का यूँ मिलना

आसमान बहुत बड़ा होता है पर हम उतना ही देख पाते है जितना कि हमारी दो नजरे देखने का प्रयास करती है।नायक के सामने सारा आकाश है पर वह देख रहा है, एक चाँद को और उसके आसपास एक भी तारे को नहीं। कुल मिलाकर आसमान के एक छोटे से हिस्से को जिसमें चाँद के करीब कोई एक भी तारा नहीं है।चाँद पूरा है आज, एकदम से साफ आसमान में।आसमान उतना ही साफ और सुंदर दिख रहा है जैसे किसी न अभी अभी धोकर चमकाया हो जैसे। नायक सोच रहा है कि यही चाँद नायिका के छत से भी दिखता होगा? और क्या नायिका भी इतना ही आसमान देखती होगी? एक चाँद को और कुछ आसमान को। बीते कई दिनों से नायक की बात नायिका से नहीं हुई है।कोई एक भी अपनी-अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर दूसरे को कॉल नहीं कर पाए है।इधर नायक को रोज देर रात को ही ध्यान आता है कि वह आज भी नायिका से बात नहीं कर पाया है।और फिर उसका नायिका से बातचीत करने की तलब अचानक से बढ़ जाती है। वह चाँद के बड़े से आकर को देखता है जिसपे नायिका सर रखकर सोयी हुई है।गहरी नींद में।उसके बाल कुछ इस तरह बिखरे है कि उसका चेहरा पूरी तरह नहीं दिख रहा।हाँ, उसकी सांसों की गति से नाक के पास बिखरी बालों म

तेरा शहर जो पीछे छूट रहा

शहर इश्क़ नहीं सीखा पाता, इश्क़ शहर में रहना सीखाता है। कई वर्ष हो गए नायक को इस शहर में रहते हुए।पर अक्सरहाँ कुछेक महीनों पर चिराग दिल्ली से लेकर ITO की ट्रैफिक हो या रोज सुबह उठकर मेट्रो की सफर से कॉलेज पहुँचना हो, सब उसे उबाउं लगने लगती।फिर वह बैग लेकर निकल जाता कहीं।कहीं, किसी रास्ते पर जो इस शहर से दूर ले जाती हो। पर आजकल बहुत दूर निकल कर भी वह इसी शहर में छूट सा जाता है।उसे महसूस होता है कि उसका कुछ हिस्सा इसी शहर में छूट गया है।वह हिस्सा जो बाहर का है ही नहीं, उसे वह कहीं और कैसे ढूंढेगा।जैसे अब किसी फूल की खुश्बू फैली हो इस शहर में और जैसे-जैसे वह दूर जाता हो उसे उस गमक का सुखद एहसास कमने लगता हो।जैसे वह जितनी भी सांसे लेता है, वे सारे ऑक्सीजन अब इसी शहर में बच गए हो।और जैसे इस शहर में ही कोई सूरज निकलता हो और फिर कोई सूरजमुखी का फूल खिलता हो। इस बार नायक नायिका से कहता है "आज आ जाओ न, मिलने के लिए।कल चला जाऊँगा"। उधर नायिका घर के साफ-सफाई से कुछेक पल निकाल व्हाट्सएप खोल लेती है।बड़े से लाठी में बंधे झाड़ू को एक तरफ रख वह लिखती है "घर में बहुत काम है।कुछेक कम