Skip to main content

Posts

Showing posts from December, 2017

【ये सब पागलपन की बातें है】

मसलन खिड़की किनारे बैठा मैं, जो कि यात्रा में मुझे अधिक पसंद है, यही सोच रहा होता हूँ कि पहाड़ो के किनारे से होकर बस गुजर कैसे जाती है जबकि बगल में ही तो गहरी खाई है।या फिर जब बस गांधी सेतू से गुजरती है तब मैं सोचता हूँ कि पूल टूट कर गिर भी तो सकती है या बस का संतुलन भी तो बिगड़ सकता है।और अगर बस गंगा में गिर गयी तब क्या होगा, मुझे तो तैरना भी नहीं आता। ड्राइवर भी आदमी होता है, ऐसे खतरनाक पलों में वह क्या सोचता होगा? और मैं तो सोचता रहता हूँ कि जब सारी दुनिया सुबह उठने के लिए संघर्ष कर रही होती है तब भी मेरे गांव से होकर गुजरने वाली बस का ड्राइवर जाड़े में भी इतनी सुबह बस कैसे ले आता है? या रात-रात भर ट्रेन का ड्राइवर कैसे जगा रह जाता है? दिन में सोने से रात भर की नींद पूरी हो जाती होगी क्या? जब दिन में वह सोता होगा तब क्या उसे सपने आते होंगे? यात्रा में कुछ बातें अनवरत मेरे दिमाग मे चलती रहती है।चाहे मैं ट्रेन में बैठा होऊँ या किसी बस में।ट्रेन और बस की रफ्तार मेरे मन की गति के समानांतर होती है, ट्रेन के दो पटरियों की तरह।जिसके एक हिस्से पे ट्रेन और बस चल रहा होता है तो दूसरे ह

【नायिका का जलेबी प्रेम】

पटेल चेस्ट से आगे, मॉरिस नगर पुलिस स्टेशन के ठीक सामने अमित जी अपना ठेला लगाया करते।शाम होते ही भीड़ उनके ठेले के आसपास जमने लगती।वजह उनके हाथों की बनी गरमा-गरम जलेबी होती।खौलते तेल में अमित जी के हाथ को इधर से उधर घूमता हुआ नायक गौर से देखता और देखते ही देखते परत दर परत चढ़ती जलेबी तैयार हो जाती। नायक को अमित जी के हाथों की बनी जलेबी और अधिक मीठी इसलिए भी लगती क्योंकि वह नायिका के ही गांव के थे।और अक्सर कैम्पस के दिनों में जब कॉलेज खुला होता, नायक नायिका के साथ यहाँ जलेबी खाने आया करता। बातों ही बातों में नायक न जाने किन किन नुक्कड़ से होते हुए नायिका के घर से अमित जी के घर तक का रास्ता ढूंढ़ लेता और फिर गूगल मैप में अमित जी को दिखाता, अमित जी अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से देखते हुए कहते "हां, बिल्कुल सही दिखाता है बाबू।" ऐसे ही अमित जी से कई बातचीत में नायक न जाने कितनी गलियों और चौराहों को अमित जी की बातों में पहचानने लगा था।और दोनों में ऐसी बनती जैसे वर्षों का याराना हो।जब कभी भी नायिका नायक के साथ जलेबी खाने वहाँ आती, फिर तो अमित जी कुछ ज्यादा ही जान फूंक देते जलेबी बनाने

【हाथी भी चलते हुए रेड लाइट पे रुक जाता होगा】

"आदमी का दिमाग उसके शरीर से भी बड़ा होता होगा।बहुत बड़ा।इसलिए ही उसकी सहज जिज्ञासा हमेशा कायम रहती है।वह सोचता जाता है, निरंतर प्रश्न करता जाता है।" लक्ष्मी नगर से 336 नंबर की बस में लोधी गार्डेन के लिए बैठी नायिका ऐसा ही सोच रही है जब नायक उससे सहज ही पूछ बैठता है "क्या हाथी भी यूँ सड़को पे चलता हुआ, रेड लाइट पे रुक जाता होगा।" नायिका एक पल को नायक के इस प्रश्न से अकचकाती है पर जब नायक उसे बस की खिड़की से बाहर देखने को कहता है तो वह नायक के जिज्ञासा का कारण समझ पाती है।बाहर वह देखती है एक हाथी को।और उस बड़े से हाथी के ऊपर बैठे एक मतवाले अदना से आदमी को। Photo - Getty Image ITO की ओर दोनों मस्ती में जा रहे है।उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिस सड़क पे वे इतने मतवाले होकर चले जा रहे है उसपे अन्य बहुत सी तेज गाड़ी उसी ओर भाग रही है जिधर की हाथी और ऐसे में उनके धिमे चाल को कोई ठोकर भी मार सकता है।और अगर हाथी बीच सड़क पे गिर जाए तो क्या होगा? या वह आदमी जो हाथी के ऊपर मस्ती में बैठा है? क्या तब भी लोग खूब हॉर्न बजाएंगे।नायिका यह भी सोच रही कि हाथी ने क
बनना तो चाहता था मैं तुम्हारी ठोडी का तिल। पर बन बैठा मैं तुम्हारा प्रेमी। अलग तो होना ही था। # ACP

उम्र भर की नींद.

मैं सो जाना चाहता हूं अपनी बची हुई उम्र भर के लिए ताउम्र के लिए। ऐसी नींद में जो कभी न खुले फिर सूरज के किसी किरण को देखने के लिए। मुझे वो नींद सौप दो माँ। जो मुक्ति हो इस अंधेरे के बाद कि उजाले से मुझे वो नींद दो मां। अपनी आँचल में सूला लो मुझे फिर कभी न जगने के लिए मुझे नींद दो माँ मुझे नींद दो ताउम्र के लिए।

खामोश आहट

न दिन होता है अब और न ही रात होती है बस ख्यालों में उनसे मुलाकात होती है। मन के दरवाजे पे बैठा दरबान बार-बार किसी के आहट का संकेत देता है देखती है नजरे उधर पर उनके अनुपस्थिति भर से नजरें खामोश होती है। दूसरे कमरे में बैठा मेरा छोटा भाई, थोड़ी-थोड़ी देर पे किसी सुडोको को सुलझा लेने पर खुशी से ऐसे उछल पड़ता है जैसे कभी उनके आहट पर मैं उछल जाया करता था। कौन जाकर उनसे कहे भला कि विरह का आलम जिस्म के जर्रे-जर्रे को ऐसे तोड़ रहा है कि मिलने की इबादत में ही यह जिंदगी तमाम होती है।

"पल पल दिल के पास तुम रहती हो"

बात तब की है जब 'गजनी' फ़िल्म आयी थी।फ़िल्म से नायक इतना प्रभावित हुआ था कि वह तब से डायरी लिखने लगा था।और अक्सर डायरी वह रात को सोने से पहले लिखा करता।दिन भर स्कूल की क्लासेज-ट्यूशन और फिर शाम को क्रिकेट से थकता-उतरता उसका जिस्म देर रात को जब डायरी लिखने के लिए बैठता तो अंदर ही अंदर उसे बड़ी मोटिवेसन मिलती, यूँ ही लिखते रहने को। इसकी एक खास वजह थी। तब स्कूल तो को-ऐड था पर क्लास में लड़के और लड़कियों को अलग बैठने के साथ ही मिलने-जुलने की साफ मनाही थी।उनके गतिविधियों पे स्पष्ट नज़र रखा जाता था।ऐसे में प्रेम होने का ख़्याल जितनी तेजी से चढ़ता उतने ही तेजी से उस माहौल में उतर भी जाता।तो सब के साथ ही नायक के लिए भी प्रेम का घटना एक फिल्मी सम्भवना थी।जब अचानक से आसमान में बादल छा जाएंगे, तेजी से हवा बहने लगेगी, फूल-पत्तियां सब में एक खास रौनक आ जायेगी जब नायिका सामने आयेगी। Photo - ACP तो ऐसी ही कल्पना से ओतप्रोत नायक अपनी डायरी में प्रेम से उलझता-सुलझता रहता।खुद ही प्रेम के किसी काल्पनिक भंवर में फंसता और सोचते-सोचते सोता हुआ, क्लास में त्रिकोनमेट्री का कोई सवाल सुलझाता हुआ