पटेल चेस्ट से आगे, मॉरिस नगर पुलिस स्टेशन के ठीक सामने अमित जी अपना ठेला लगाया करते।शाम होते ही भीड़ उनके ठेले के आसपास जमने लगती।वजह उनके हाथों की बनी गरमा-गरम जलेबी होती।खौलते तेल में अमित जी के हाथ को इधर से उधर घूमता हुआ नायक गौर से देखता और देखते ही देखते परत दर परत चढ़ती जलेबी तैयार हो जाती।
नायक को अमित जी के हाथों की बनी जलेबी और अधिक मीठी इसलिए भी लगती क्योंकि वह नायिका के ही गांव के थे।और अक्सर कैम्पस के दिनों में जब कॉलेज खुला होता, नायक नायिका के साथ यहाँ जलेबी खाने आया करता।
बातों ही बातों में नायक न जाने किन किन नुक्कड़ से होते हुए नायिका के घर से अमित जी के घर तक का रास्ता ढूंढ़ लेता और फिर गूगल मैप में अमित जी को दिखाता, अमित जी अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से देखते हुए कहते "हां, बिल्कुल सही दिखाता है बाबू।"
ऐसे ही अमित जी से कई बातचीत में नायक न जाने कितनी गलियों और चौराहों को अमित जी की बातों में पहचानने लगा था।और दोनों में ऐसी बनती जैसे वर्षों का याराना हो।जब कभी भी नायिका नायक के साथ जलेबी खाने वहाँ आती, फिर तो अमित जी कुछ ज्यादा ही जान फूंक देते जलेबी बनाने में।
पर अब जब एग्जाम हो चुके है।कैंपस आने का कोई मतलब नहीं।ऐसे में नायक सीधा नायिका के घर के पास पहुंच जाता है और उसे बाहर आने को कहता है।
नायिका के घर के पास में ही नुक्कड़ पे सोनू जलेबी वाला है।एकदम यंग ऐज का सोनू जलेबी बनाते हुए बातों बातों में अपने देवरिया की न जाने कौन-कौन सी बातें नायक को बताता जाता और नायक ध्यान से सुनता।इसलिए दोनों में खूब जमती।
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नायिका के आते ही नायक उसकी तरफ जलेबी बढ़ाता है।और नायिका मुस्कुराती हुई कहती "तुम उतनी दूर से यहाँ जलेबी खाने ही आते हो क्या?"
"अरे तुम्हें पसन्द है न, फिर एक-दो ही क्यों खा रही हो? लो, और खाओ न!" नायक नायिका के उस बात को टालते हुए कहता।जब भी वे जलेबी खाते, नायिका एक या दो पीस ही खाती।जबकि नायक खाता जाता फिर भी उसका मन नहीं भरता।
"मैं कम खाती हूँ क्योंकि आगे भी खाने की इक्छा बनी रहे।" नायिका के इस बात पे नायक कहता "वाह! क्या बात है।" पर अगले ही पल नायिका उसे टोकती "अच्छा, तुमने बताया नहीं कि तुम उतनी दूर से जलेबी खाने ही यहां आते हो क्या?"
नायिका की बातों में प्रश्न कम शरारत ज्यादा है।पर फिर भी वह नायक को छेड़ती है।और कहती है "बताओ भी?" उधर नायक जलेबी खाये जा रहा है।
"पहले तुम ये बताओ कि तुम्हें जलेबी क्यों पसन्द है?"
"नहीं, पहले तुम बताओ?"
"नहीं पहले तुम।लेडीज़ फर्स्ट।"
अब नायिका क्या कहे।अंततः वह ही आगे बढ़ती है।
"पता नहीं क्यों, जब भी मैं जलेबी को देखती हूँ मेरा मूड कितना भी बिगड़ा हो तुरन्त बदल जाता है..."
"अरे वाह! जब देखने से ही मूड बदल जाता है फिर खाने की क्या जरूरत है!"
नायक के इस शरारत पे दोनों मुस्कुराते है और नायिका केहुनी से उसके पीठ पर चोट करती हुई कहती है
"जाओ नहीं बताती मैं"
"अरे बताओ न! अब नहीं बोलूंगा बीच में।"
नायिका तिरछी आँखों से नायक के तरफ देखती है।जहाँ नायक सरेंडर किये खड़ा है।एक साथ दोनों की हंसी छूटती है।
"जाओ नहीं बताती मैं"
"अरे बताओ न! अब नहीं बोलूंगा बीच में।"
नायिका तिरछी आँखों से नायक के तरफ देखती है।जहाँ नायक सरेंडर किये खड़ा है।एक साथ दोनों की हंसी छूटती है।
"एक तो जलेबी की यादें बचपन से भी जुड़ी हुई है।जब भी कोई पर्व-त्योहार होता, पापा जलेबी जरूर लाते और जब कभी भी वे भूल जाते मैं उनसे खूब झगड़ती।"
"आज भी झगड़ती हो?" नायक ने बीच में टोका।
"हाँ, आज भी घर में जलेबी पापा ही लाते है।उन्हें पता है न कि मुझे जलेबी खूब पसंद है।" कहती हुई नायिका सीधा बातचीत का रुख मोड़ती हुई नायक से पूछ लेती है "तुम बताओ, तुम्हें क्यों पसन्द है जलेबी?"
कागज में हाथ पोछते हुए नायक कहता है-
"मुझे....मुझे तो जलेबी इसलिए पसन्द है क्योंकि वो तुम्हें पसन्द है।"
नायिका मुस्कुराती हुई कहती है, "भक्क!"
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