Saturday | 02 Oct 2021
03:50pm
बहुत देर कुर्सी पर बैठे-बैठे खिड़की से बाहर मैं बारिश को देखता रहा। फिर उठकर बाहर निकल आया। कैम्पस के बरामदे में बारिश का पानी टपकने लगा था। बहुत तेज बारिश होने पर ऐसा होता था। शुरू के एक साल कैम्पस कितना खूबसूरत लगता था। अब टपकते पानी को देख लगता है, कैम्पस में छड़ाई की ज़रूरत है। कौवों ने ख़पड़ा उलटा-पलटा दिया होगा।
सामने देखने पर मैंने पाया बहुत तेज़ी से कैम्पस की फ़ील्ड से मिट्टी बारिश की पानी में बहने लगा था। थोड़ी देर मैं बारिश को वहीं खड़े देखता रहा। फिर मन हुआ तो फ़ोन से कुछ देर तक रिकोर्ड भी कर लिया। ठंडी हवा चल रही थी। अच्छा लग रहा था। पानी आपके ऊपर गिरे, आपके अंदर गिरे या आपके सामने आपको शीतलता से भर देता है। बिते समय में बहुत परेशान रहा हूँ। इनदिनों लगने लगा है, किसी समुद्र में अकेला फँस गया हूँ। दूर दूर तक पानी है और मेरे पास न तैरने का कौशल और न ही पानी से बच निकलने का कोई रास्ता बचा है।
2018 में मैं बहुत उत्साहित आदमी था। इतना उत्साहित कि एक फ़िचर फ़िल्म बनाने के फ़ैसला लेते हुए मैंने तनिक समय भी नहीं लगाया था। उन दिनों मैं मेघा को अपनी इस फ़िचर फ़िल्म की स्टोरी फ़ोन पर सुनाया करता था। वह बहुत साहसी लड़की थी। मुझे सुनती और फिर ज़्यादा लिखने को उकसाती। कुछ दोस्त और भी अच्छे थे, सुभाष से ही बातें हो जाती। कॉलेज के दिनों में सुभाष मेरे से सीनियर थे। मैं उन्हें सुभाष भैया कहता था। बाद में घनिष्टता इतनी बढ़ गयी कि उन्होंने ज़िद्द करना शुरू कर दिया की भैया मत कहो यार। बाद में मैंने अपने फ़ोन से सुभाष भैया की जगह सुभाष जी लिख दिया था। उनका नमबर ऐसे ही सेव था। वे एक शानदार लिस्नर थे, और मेरे पास तो हज़ार घंटे कुछ न कुछ सुनाने को होता। वे सब सुन लेते, कभी कुछ कहते नही। बहुत कम अपना दुःख बाँटते वे। ख़ैर, आज भी ऐसे ही है।
तब एक और दोस्त थे, अर्पित। अर्पित से मेरी घनिष्टता काम इतने भर की थी। मैने उसे अपने फ़िल्म के लिए काम करने को कहा और वह तैयर हो गया। उसके साथ आने से साहस ही नहीं बहुत कुछ मिला। वह हमेशा मेरे साथ खड़ा रहा। चिंटू तब घर ही रहता था, उसने फ़िल्म का पोस्टर वोस्टर बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई। और ज़्यादा लोग नहीं थे। निशांत भी था साथ में। पर हम ज़्यादा दिन साथ में काम नहीं कर पाए। उसका स्टाइल और मेरा स्टाइल मैच नहीं हो पाया। बाद के समय भी हम इस प्रोजेक्ट के लिए साथ नहीं आ सके। पर कई जगहों पर वह मददगार रहा।
2018 स्क्रिप्ट पर काम करते हुए ही निकल गया। जब मैने स्क्रिप्ट फ़ाइनल किया था तब यह फ़ाइनल जैसे नहीं था। कोई ख़ास फ़ॉर्मैट नहीं था जैसे फ़िल्म स्कूलों में सीख़लाते है। हाँ जैसा मुझे आता था, मैने लिख डाला था। बच्चे हमेशा मेरे आसपास रहते थे। मनीष, शिवशक्ति, पहाड़ी और रीपु ऐसे बच्चे थे जिनका ज़्यादातर समय मेरे साथ बीतता। हम साथ में घूमते फिरते। और ये बच्चे सबकुछ मेरे से बेहद आत्मीयता से शेयर करते। इन्हीं की कहानी यह फ़िल्म थी। इसलिए फ़िल्म लिखना केवल चैलेंज़िंग था, फ़िल्म की कहानी इन बच्चों से मेरे ज़ेहन में रौंद गयी थी। लिखने का संघर्ष इसलिए था क्यूँकि इतना लंबा मैंने पहले कभी नहीं लिखा था।
हालाँकि फ़िल्म को मुझे फिर से रि-राइट करना पड़ा था जब आफ़ताब जी टीम से जुड़े थे और स्लीनीयो का रोल फ़िल्म से इसलिए कटा था क्यूँकि वे शूट्स के दौरान आने में असमर्थ रहे थे। शूट्स बेहद चुनौतिपूर्ण समय में हमने प्लान किया था। कोरोना का समय था। स्लीनीयो ने आने से मना कर दिया। मुझे स्लीनीयो की ज़रूरत इसलिए भी थी कि वे मुझे production सम्भालने में मदद करते पर उनके मना करने से मुझे बेहद निराशा हुई थी। पर मैं शूट्स के लिए मन बना चुका था। पैसों की क़िल्लत के बावजूद मैं और वीर जी लगातार फ़िल्म पर प्लानिंग में लगे थे। यह वो दौर था जब मेरे ज़्यादातर घनिष्ट दूर जा चुके थे, किसी न किसी वजह से सबसे बातचीत बंद हो गयी थी। दोस्त में सुभाष हमेशा पिलर की तरह खड़े रहे। वीर जी ने जितना आर्थिक सहयोग हो सका उन्होंने दिया। इन सबके बीच मेरे थके मन को अगर कोई ज़िंदा कर रहा था तो वो मेरी प्रेमिका Yeoh थी। उसका मेरी ज़िंदगी में आने से ग़ज़ब का ठहराव आया था। वह बेहद शांत, सपोर्टिव व बेहतरीन इंसान थी। उसने हमेशा मुझे ऐसे ही साहस दिया जैसे धरती पर पानी गिरने से धरती को मिलता होगा।
फ़िल्म शुरू करने के दिन से लेकर आज तक फ़िल्म को लेकर आर्थिक तंगी बनी ही रही। मुझे याद आता है जब हमने अपने ब्लॉग पर क्राउडफ़ंडिंग शुरू किया था। 21 अप्रैल का दिन था। मेरा birthday। दिन भर ब्लॉग का content बनाने में मैं और स्मृति जी लगे रहे थे। शुरुआत में हिंदी का बेहतरीन अनुवाद करने में स्मृति जी ने मेरी शानदार मदद की। बाद में संजय जी से मेरी बातचीत बंद हो गयी। फिर स्मृति जी से बातचीत बंद होना बेहद स्वाभाविक था।
20 की रात जब 21 आयी तब मैंने और चिंटू ने ब्लॉग का लिंक शेयर करना शुरू कर दिया। ब्लॉग पर अच्छे तरह हमने सबकुछ सजा दिया था। पोस्टर को चिंटू ने ही डिज़ाइन किया था। और पोस्टर के शूट्स में हमने बहुत पसीना बहाया था वैसे। मैं, मेरे अंकल (चिंटू के पापा), साजन, संजय, सुधीर और कुछ बच्चे सब नदी पर गए थे। स्तुति को नाव चलाना था नदी के बीच में और वही मुझे कैप्चर करना था। पर जिस तरह हमने केला के थम का नाव बनाया था वो बहुत करागर साबित नहीं हुआ। आते जाते लोग हमलोगों को देखते और हंसते। एक दो दिन के प्रयास के बाद हमने ट्रैक्टर के टायर को नाव के रूप यूज़ किया था और फिर पोस्टर के लिए फ़ोटो शूट फ़ाइनल हुआ था। बाद में चिंटू ने ही पोस्टर को तैयर किया और thegirl को गाँव के कुछ बच्चो ने डिज़ाइन किया था। मैंने चिंटू से कहा था कि जयदा से जयदा लोगों की भागीदारी सुनिस्चित करो। हमें कम्यूनिटी को साथ लेकर यह फ़िल्म बनाना है। फिर उसने thegirl को बेहद नेचुरल रूप से गाँव वालों से डिज़ाइन करवाया था। उसने कुछ बच्चो को कहा था की ये पेज लेकर जाओ और गाँव भर के लोगों को कहो, thegirl लिखे। सबने अलग लग अंदाज़ में लिखा था। उसी को मिलाकर हमने कुछ फ़ाइनल किया था।
अब फ़ुर्सत मिलने पर फिर कभी आगे लिखूँगा। बाहर बारिश अभी भी बहुत तेज हो रही है। सोच रहा हूँ, थोड़ी देर बाहर बैठ जाऊँ। अक्टूबर में इस तरह बारिश वैसे होती नहीं है। शायद प्रलय से पहले इसी तरह बारिश होगी, पर आदमी पानी में डूब कर नहीं मरेगा। चाली, घोंघे, साँप, बिछु, जोंक सब आदमी को चाट खाएँगे।
Tue | 05 Oct
आज मूड कुछ करने को नहीं था। कल रात को facebook, इंस्टा और whatsapp सब डाउन हो गए थे। पता नहीं क्यूँ शाम से लाइट भी नहीं थी। रात को घर से जल्दी लौट आया था, और सो गया। थोड़ी देर बातचीत Yeoh से टेलीग्राम पर हो पायी थी। मन थका थका सा लगने लगा है। नितेश जी से बातचीत हुई तो उन्होंने प्रोजेक्ट के क्राउडफ़ंडिंग पर अपनी ideas शेयर किए थे। फिर थोड़ा उत्साहित होकर काम को बढ़ाने का प्रयास मैने किया था। अर्पित से भी बातें हुई थी। पर जैसे हम सबका उत्साह मर गया है। बार बार पैसे माँगते हुए हम सब थकने लगे है। अभय बता रहा था, तीन कड़ोर लोग बज्जिका बोलते है फिर भी इस भाषा की इस पहली फ़िल्म को सपोर्ट नहीं मिल पा रहा। लगातार मैं emails किसी न किसी को भेज रहा हूँ। कोई जवाब आ जाता है कहीं से नहीं भी आता। पर फ़िल्म के लिए जिस आर्थिक मदद की ज़रूरत हम सबको है वह आज भी कहीं से नहीं मिल रही।
कभी कभी लगता है क्या मुझे भी मुंबई चले जाना चाहिए। वहाँ भले ही जिस तरह की भी फ़िल्में बनती है, पर आर्थिक मज़बूती तो होती ही होगी। मन एक लम्बे संघर्ष की कल्पना से डर जाता है। कुछ नहीं समझ आता। Yeoh ने कहा अगर हम नए तरीक़े से पेज को डिज़ाइन करें और अप्प्रोच शुरू करे तो शायद बात बने, मुझे उनकी इस बात से कुछ एनर्जी महसूस नहीं हुई। लगातार मैं facebook पर लिखता रहा हूँ, लोगों को बताता रहा हूँ कि आधी पूरी हुई इस फ़िल्म को कैसे आपके थोड़े से सहयोग से पूरा किया जा सकता है पर कोई नहीं सुनता। सोशल मीडिया ने हमें जितना मज़बूत किया है, उससे कहीं ज़्यादा हमें कमजोर और खोखला कर चुका है। हमारी नज़र किसी अच्छे मुद्दे, बढिया सबजेक्ट्स पर भी लम्बी नहीं टिकती। स्क्रोल करते हुए आगे बढ़ जाने की हमारी आदत हो गयी है। हम सब अपना दुःख fecebook पर लिख देना चाहते है, कोई किसी के दुःख, किसी के प्रोजेक्ट, किसी के सपने का हिस्सेदार नहीं बनना चाहता, हाथ नहीं बँटाना चाहता। यह 21st शताब्दी की एक बड़ी ट्रेज़डी है।
Sat | 16 Oct
यूएसए से एक अजनबी भाई से दस हज़ार फ़िल्म के लिए मिले। उसी रात नेपाल में भी बातें हुई। एक उम्मीद फिर से क़ायम हुई कि फ़ंडिंग बढ़ेगी। पर आज तक कुछ ख़ास परोग्रेस नहीं हुआ। आफ़ताब भी इन दिनों विजयवाडा में शूट कर रहे है। उनसे फ़ोन पर अभी कुछ ख़ास बात नहीं हो पायी है, whats app पर उन्होंने कहा, डेट फ़िक्स करते है। पर जाने अनजाने मेरा उत्साह मेरी एनर्जी डाउन होने लगी है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि शायद इस वर्ष हमारी फ़िल्म पूरी न हो पाए। पानी भी इस साल खूब गिरा है, जगह-जगह पर अभी भी पानी भरा हुआ, कुछ कह नहीं सकते अगले महीने तक सब क्लियर हो जाएगा और हम बाहर शूट कर पाएँगे। बहुत तेज बारिश के कारण thegirl के सेट का भी बुरा हाल हो गया है। छत की तराई फिर से वहाँ करवानी होगी। इस सेट को बनाने में बच्चो से लेकर ताबिश, स्लीनीयो और न जाने कितने मित्रों ने कमाल का काम किया। स्लीनीयो ने धीरेंद्र के साथ बारिश में लग कर सेट को बेहतर बनाया। Yeoh बता रही थी कि कोरोना से मलेशिया उबरने लगा है और धीरे-धीरे चीज़ें खुलने लगी है। भारत भी अगले महीने नवम्बर से टुरिस्ट के लिए खुल जाएँगे
Mon | 25 Oct
लोग आपसे हारने की उम्मीद नहीं करते। जबकि सच यह है कि मैं बेहद घुटन महसूस करने लगा हूँ। रोज रोज बीच तीस मेल भेजना। पचासों पोस्ट इस ग्रूप से उस ग्रूप तक करना सबकुछ अब बेहद टाइरिंग लगने लगा है। कम्प्यूटर के सामने बैठने की इक्छा ख़त्म हो गयी है। दो लाइन नया लिखने में हालात ख़राब होने लगा है। सबकुछ छोड़ देने का मन बनने लगा है। कुछ बच्चो को मैने कहा कि हमेशा मेरे आसपस बने रहो, शायद कुछ काम कर पाऊँ। आफ़ताब ने कहा है एक नवम्बर को हमें पैसे देने है, रेंटल हाउस को। जबकि मेरे पास अभी भी फ़ंडिंग की कोई लीड नहीं है। गाँव में ब्याज पर पैसे उठाने के लिए कुछ लोगों से बात कर रहा हूँ। मम्मी कह रही थी, इतनी बड़ी रक़म शायद कोई न दे। कल एडिटर मयुख से बात हो रही थी, उन्होंने कहा पहले से आप क़र्ज़ में है, अब और क़र्ज़ लेकर काम करना शायद सही न हो। यह भी सच्चाई है की कोई और विकल्प अब सूझ नहीं रहा है। क्या करें, क्या न करे। समय के साथ रास्ते खुले शायद। आज सोच रहा हूँ, जंगल घूम आऊँ। नदी किनारे जाकर बैठूँ।
"कहाँ आके रुकने थे रास्ते,
कहा मोड़ था, उसे भूल जा।
वो जो मिल गया,
उसे याद रख,
जो नहीं मिला, उसे भूल जा"
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