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Showing posts from November, 2017

"मैं जानती थी, तुम्हें तैरना नहीं आता"

एक खास ऊँचाई से पत्तियां शुरू होती हुई नारियल के इन पौधों की खूबसूरती देखते बनती है।और पत्तियों से छनकर आ रही चाँद की रोशनी में पूरा कालडी अद्भुत रौनक सी चमक रही है।चाँद अब भी फलक पे है जबकि सुबह की आहट दिखाई देने लगी है। नायक और नायिका दोनों एक-दूसरे की हाथों में उँगली फंसाये कालडी के बस्तियों से गुजरते हुए सुबह की आहट पर लोगों के दिनचर्या की सुगबुगाहट देख रहे है।उनका मन है कि अभी थोड़ी देर और यूँ ही बस्तियों में भटकते रहे।पर नायिका जल्दी से पेरियार के किनारे पहुंच दूर पहाड़ी की ओट से निकलता सूरज देखने को ज्यादा इक्छुक है। हल्की ठंड भी है।कालडी के पश्चिमी भाग से चलते हुए अब वे जंगल की ओर आ गए है।जो सीधा उन्हें पेरियार किनारे तक ले जाएंगी।पर पत्तियों पर टिके ओस की बूंद उनकी आहट से जैसे ही उनके ऊपर टपकती है वे और सिहर उठते है।वैसे भी जंगल के बीच वे ऐसे चल रहे है जैसे दो जिस्म एक में सिमट गए हो फिर भी ओस की बूंद से खुद को बचा पाना उनके लिए असंभव सा है। घने जंगल को वे नापते जा रहे है।पर जंगल है कि खत्म ही नहीं हो रही।नायिका चिंतित है कि कहीं इस बीच सूरज न निकल आये।वह नायक से कहती है

प्रीतिकर

साथ बिते वक्त की तुलना में हमारे बिछोह का वक्त ज्यादा है हमारे हिस्से, इसलिए एक वक्त में मिलने से बिछुड़ने तक बिता वक्त एक स्थिर घटना है हमारे लिए, जिसमें समय से ज्यादा हम खुद घटते है। यूँ फिर मिलन के बाद की जुदाई में स्थिरता आ जाती है हमारे बीच, अगली मिलन तक के लिए। जब यादें हमारे अंदर घटती रहती है हमारा चित्त, एक-दूसरे से बहुत दूर होते हुए भी यादों में करीब होता है। इतना करीब कि, इन नजदीकियों में मिलन के बाद कि जुदाई ही, शाश्वत लगती है बाकी सभी सन्नाटे ही लगते है।।

【_जिन नयनन में पिया बसे_】

"हरेक दफे जब आती हो तुम, लगता है तुम्हारा सौंदर्य पहले से और निखर गया है।कितना भी आंखों में बसा लूँ तुम्हें, अगली बार तुम उतनी ही अलग और नयी दिखती हो।" "अच्छा।तो क्या इसलिए ही जब भी आती हूँ, यूँ ही निहारते रहते हो।कुछ बोलते नहीं।" "क्या बोलूँगा मैं।इतना देख लेने भर से जी कहाँ भरता है मेरा।" "तो आंखों में भर लिया करो मुझे।" "तुम तो आंखों में भी नहीं समाती।" "और तुम कौन से समा जाते हो।" Photo - Vergel tolentino नायिका नायक के हाथों पे कोई अज्ञात सी आकृति बना रही है।जो हर चौथे दिन मिट जाती है ताकि फिर से नायिका उन आकृतियों को नए रूप में गढ़ सके।सहज ही नायिका आगे कहती है- "और अगर कभी कहीं मैं अचानक से गायब हो गयी तो?" "तो? क्या!" "तो क्या! तुम मेरी याद में कविता नहीं लिखोगे?" "नहीं।मैं कुछ नहीं लिखूंगा।सब छोड़ दूंगा।" "क्यों! क्यों कुछ नहीं लिखोगे?" "बस नहीं लिखूँगा।बोल तो दिया।" "तो क्या करोगे मेरी याद में?" "कुछ नहीं।

"तुम कभी मेरे पास बीमार क्यों नहीं पड़ जाती"

"क्या दुनिया की सारी नायिकाओं का भाई एक जैसा होता है।अपनी बहन पे नजर रखने वाला।उसके एक-एक पल का हिसाब रखने वाला।कहाँ जा रही है, किससे मिल रही है? सब पर तिरछी नजर रखने वाला।और वक्त बे वक्त अपनी बहन को डांट देने वाला"। नायक अपनी नायिका के भाई के बारे में सोच रहा है।जो उसकी कहानी में किसी विलेन की तरह है।पर जिसमें नायक अब भी बदलाव की संभावना देख रहा है।वह उन तमाम संभावनाओं पे विचार कर रहा है जिसस े नायिका के भाई को नायिका के स्वतंत्रता की कीमत समझाया जा सके।उसे बता सके कि देखो नायिका तुम्हारी बंधन से बाहर कितनी उन्मुक्त है, कितनी खुश है। इधर नायिका बीमार है और उधर नायक व्हाट्सएप और फ़ोन कर लेने भर से संतुष्ट नहीं हो रहा।नायक को लगता है हालचाल भी भला क्या फ़ोन पे जाना जा सकता है, ऐसी स्थिति में तो पास से ही कुछ जाना जा सकता है।इसलिए ही जब नायिका फ़ोन पर कहती भी है 'मैं अब ठीक हूँ' तो नायक पलट कर कहता है कि 'तुम्हारी आवाज ही बता रही है कि तुम स्वस्थ नहीं हो'। नायक बात करते हुए नायिका को स्वास्थ्य संबंधी एक-दो टिप्स देता है।वह घंटो विकिपीडिया पे माथा खपाता है