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Showing posts from February, 2018
【_बाहर का अंधेरा खिड़की से, अंदर आ गया था, जबकि खिड़की बंद थी_】 अब घंटे भर से चाँद भी हमारे साथ चल रहा था। बस के शीशे से बाहर एक दुनिया दिख रही थी, जिसके ऊपर चाँद चुपचाप स्थिर बैठा था। और उसके दूधिया रोशनी में बस की खिड़की से ऐसा जान पड़ता था कि मैं कोई ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म देख रहा हूँ। फिर मुझे लगा कि बस का ड्राइवर जो पिछले छह घंटे से भी ज्यादा समय से बस को चला रहा है, कहीं वह भी तो यह फ़िल्म देखने न लग गया और इसलिए बस का लाइट ऑन करना ही भूल गया हो। मैं अपने केबिन में बैठा बाहर देख रहा था जब उजाला थी।पता नहीं अंधेरा कब बाहर से अंदर आ गयी और मुझे पता ही न चला जबकि बस की खिड़की पूरी तरह बंद थी। Photo - #ACP

【 मैं तुम्हारा हिस्सा हूँ 】

कहां-कहां से मिटाओगी मुझे अपने फेसबुक के वॉल से हटा दोगी डायरी के पन्नों से उन एक एक शब्द को काट कर दूर फेक दोगी जो तुमने मेरे बारे में लिखा है, अपनी उन सारी फोटोज को भी जला डालोगी जिसे मैंने क्लिक किया है? पर उन स्पर्शों का क्या जो आज भी तुम्हारी जिस्म पर मेरी एहसास बनकर रेंगती होगी। Photo - #ACP क्या तुम उन तमाम रातों को भी मिटा पाओगी, जो तुमने मेरी आँखों में जागकर बिताए है? मुमकिन होगा तुम्हारे लिए, उन शब्दों को फिर से   अपने किसी नए प्रेमी के लिए गढ़ना जिसे तुम मेरे लिए कभी गढ़ा करती थी? और आज भी   तुम आईने के सामने खड़ी होकर जब माथे के उस छोटे से गड्ढे के बीच बिंदी टिकाती होगी तब भी क्या, इस एहसास को भुला पाती होगी कि, मैं ठीक तुम्हारे पीछे खड़ा हो तुम्हें निहार रहा हूँ? और क्या अब भी तुम चाँद को, वैसे ही देखती रहती हो घण्टो? याद है तुम्हें जब यूँ ही चाँद को रात भर देखती हुई तुम कहती थी मुझसे   "मैं रात भर तुम्हें देखती रही" क्या तुमने उन रातों को भी भुला दिया है? मुमकिन है, तुम्हारे लिए आसान रहा हो   यादों को भुला पाना, या आज भी सारी याद

तेरा खून है सौ में नब्बे काला.

यह कल (19 फरवरी) देर रात की घटना है, दिल्ली सरकार द्वारा आयोजित उर्दू हेरिटेज फेस्टिवल से मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ लौट रहा था। हम लोग राजीव चौक से करोल बाग की तरफ जाने वाली सड़क पर टहल रहे थे कि अचानक हमें कहीं से किसी लड़की के चीखने की आवाज़ सुनाई दी। सड़क सुनसान ही थी और एकाध लोग ही आस-पास थे। हम सभी दोस्त इधर-उधर कौतूहल भरी नज़रों से देखने लगे। हमने देखा कि एक ऑटो हमारी तरफ आ रहा है, लड़की के चीखने की आवाज़ भी ऑटो के अंदर से ही आ रही थी। हम आंखें फाड़कर ऑटो के अंदर देखने की कोशिश करने लगे और ऑटो एक पल में आंखों से ओझल हो गया। हमने केवल इतना देखा था कि ऑटो के अंदर बैठी लड़की किसी से हाथ छुड़ाने का प्रयास कर रही थी और ज़ोर-ज़ोर से चीख रही थी। अब चूंकि ऑटो के अंदर अंधेरा भी था तो दृश्य के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता, सिवाय इसके कि लड़की के चीखने की आवाज़ ही दृश्य को समझने के लिए पर्याप्त थी। हममें से एक दोस्त ने जल्दी से पुलिस को कॉल कर दिया। जब तक ये सब नहीं हुआ था, हम सभी खूब मस्ती कर रहे थे और जैसे ही यह घटना घटी, रात की सन्नाटे में हमारी मस्ती भी शांत पड़ गई। जैसे अब

माँ।

【माँ घर के अंदर ही रहती है बाहर, सिर्फ माँ की यादें होती है।】 कितनी-कितनी बार मैंने कहा है माँ से बाहर चलने को, पर हर बार माँ टाल दिया करती कहती, "कितना काम पड़ा है।" हमेशा माँ ऐसा ही कहती थी मैं जिद्द करता फिर भी, वह यही कहती। माँ घर के अंदर ही रहती बाहर, सिर्फ माँ की यादें होती है। दिनभर से लेकर देर रात तक माँ घर भर में ही इधर से उधर भागती रहती और अगले दिन तड़के सुबह ही जग कर घर बुहारने लग जाती। घर के छोटे से बड़े बुहारने से लेकर पुताई तक का काम मां ही करती थी कौन से खेत में क्या बुआई करनी है और कटाई के वक्त तक मे भी सबपर माँ ही ध्यान देती। पर कभी भी उन्होंने चारदीवारों से बाहर कदम नहीं रखा। माँ ने अपनी दुनिया चारदीवारी में ही बसा लिया था उन्हें देख लगता था, मेरी बाहर की दुनिया भी कितनी छोटी है पर उन दीवारों के बीच रहते हुए ही माँ ने मुझे बाहर के तौर तरीके सिखाए चारदीवारों से ऊपर की आसमां में उड़ने का हौसला दिया और ढ़ेर सारे सपने दिए। जिनपर सवार हो मैं बहुत दूर निकल आया इतनी दूर क

मोनालिसा

और देर सुबह जब मैं जगता पाता कि, अपने हिस्से का बिस्तर सही कर मेरे माथे तक कम्बल खीच वह बिस्तर पर नहीं है। मैं आंख मिजता हुआ बिस्तर पर उठ बैठता और कुछ देर इधर उधर देखने के बाद भी जब मेरी नजरें उसे नहीं ढूंढ़ पाती तो मैं आवाज लगाने लगता "मोना....वो मोना... ....कहाँ चली गयी?" और जब कमरों से गूंजती मेरी आवाजें उसकी कानों से टकराती, वह वहीं बाथरूम से कहती "आयी...बस एक मिनट..." उसकी आवाज मेरी कानों में किसी सरगम सी पड़ती, और सहसा ही मेरा ध्यान, कमरे की ओर चला जाता हफ़्तों से बिखड़ी किताबें, कपड़ें, और भी न जाने क्या क्या सब किसी न किसी जगह पर सजी होती भले ही उन्हें उनकी जगह पर नहीं रखा गया होता पर वे सब कहीं न कहीं ऐसे रखी होती  जैसे वहीँ उसकी उपयुक्त जगह थी मैं कहता उससे, जब बाथरूम से बालों में तौलिया लपेटे, वह बाहर आती "क्यों करती हो इतना, क्या जरूरी थी कमरा साफ करने की?" वह मुस्कुराती और बिना कुछ बोले ही छत की ओर चली जाती। मैं एकटक उसे जाते हुए देखता रह जाता। बहुत दिन बीत गए उसे
Photo #ACP "तो क्या प्लानिंग है वैलेंटाइन की?" "कुछ खास नहीं!" "फिर भी, क्या कुछ खास कर रहे हो अपनी प्रेमिका के लिए?" "उन्हें प्यार कर रहा हूँ इससे खास और क्या हो सकता है!" # ACP  #ImagethroughmyEyes

एक सांस्कृतिक उत्सव का खात्मा!

पिछले तीन संडे से यह मार्केट बंद है। पहले कहा जा रहा था कि गणतंत्र दिवस के बाद फिर से यह मार्केट लगने लगेगा पर ऐसा नहीं हुआ। हर संडे को पुस्तक प्रेमियों से भरा रहने वाला यह मार्केट लगातर पिछले कुछ संडे से बंद पड़ा है। बात हो रही है दिल्ली के दरियागंज संडे बुक मार्केट की। दरियागंज में प्रत्येक संडे को लगने वाला पुस्तक मेला या यूं कह लीजिए कि बुक मार्केट अपने आप में एक सांस्कृतिक उत्सव जैसा रहा है जो पिछले पचास वर्षों से भी अधिक समय से चलता आ रहा था। प्रोफेसर शिव विश्वनाथन कहते हैं “यह मार्केट ऐसा मार्केट है जहां रेयर से रेयर किताबें आराम से मिल जाया करती हैं, जो अलग-अलग लाइब्रेरी तक में नहीं ढूंढी जा सकती।” मुझे याद है जब मैं पहली बार दरियागंज बुक मार्केट, संडे को सुबह-सुबह पहुंच गया था, भीड़भाड़ तो थी पर उतनी ही लापरवाही से डिलाइट सिनेमा हॉल से लेकर जामा-मस्जिद तक किताबें बिखरी पड़ी थी। एक से एक किताबें, हर कैटेगरी की। शायद इसलिए भी यहां हर तरह के लोग आते थे। जिन किताबों को बाहर ढूंढना तक मुश्किल होता है, वे किताबें यहां थोड़ी मशक्कत के बाद सस्ते रेट पर मिल जाया करती थी। Photo - #A
Photo - #ACP देर रात गए भी  कुछ आँखें, जगी होती है। उन रतजगो का क्या! उन्हें तो सुबह तले भी इंतजार ही मिलती है। #ACP   #ImagethroughmyEyes
_कितना कुछ है दुनिया में पढ़ने को_ _नदियों की कलकल, पक्षीयों की चहचहाट_ _वादियों का दृश्य, हवाओं का संगीत_ _तो किसी का चेहरा भी_ _फिर किताबों को क्यों पढ़ना पड़ता है?_ #ACP   #ImagethroughmyEyes