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Showing posts from August, 2018

सतपुड़ा की यात्रा। (भाग-०६)

 [“ओ भगत! किधर को सोने का?”]  कई दिनों से बारिश नहीं हो रही थी, इस कारण भक्तों में पहाड़ चढ़ते यह आम चर्चा थी कि कहीं भोले नाराज़ तो नहीं। इतनी संख्या में लोग नागद्वारी आते है, कुछ घंटे-दिन के लिए ही सही पहाड़ों पे अपना ठिकाना बनाते है, ऐसे में गंदगी भी वे आसपास ही फैलाते है। एक बारिश आकर सारी गंदगी बहा ले जाती है। इसलिए इस मेले में बारिश की प्रमुख भूमिका है। जब हम चित्रशाला पहुँचे, शाम के लगभग साढ़े सात बज रहे थे। इसलिए आगे बढ़ना मुमकिन नहीं था। कुछ प्रयास से हमें चाय मिल गए। इतना थकने के बाद चाय जैसे राहत थी। पर कुछेक चुस्की के बाद और पीना सम्भव नहीं था। यह पूरे दिन भर से अबतक में चौथी चाय थी जिसे फेंकना पड़ा था। अब समझ आ गया था कि नागपुर के लोग शक्कर ही पीते है। आसपास देखा, सोने की कोई जगह हमें नहीं दिखी, पहाड़ों की खोची तक मे लोग एडजेस्ट हो गए थे। सो तय किया आगे बढ़ना ही सही होगा। मैंने बैग से टॉर्च निकाला। और हम आगे बढ़ गए। एक जगह ऊँचाई से नीचे उतरने के लिए सीढ़ी लगी थी। अंधेरे में हम उतना ही देख पाते है जितना टॉर्च हमें दिखा पाता है, जैसे ही दोस्त ने पैर रखा, उनका पैर सीधा नीचे च

सतपुड़ा की यात्रा। (भाग-०५)

【चलते-चलते पाव हो जाएंगे पत्थर देखना】 इस तर्ज पर कि चमत्कार क्षणिक होता है, उसे रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता, मैंने मान लिया था कि मेरे कैमरे ने इसी कारण काम करना बंद कर दिया है। पर मैं चलते हुए लगातार सोच रहा था कि आखिर कौन सी चीज़ है पहाड़ों के उस ऊंचाई पर जहां लोग इतनी खुशी-खुशी जा रहे। जबकि चलते चलते मेरी हालत खराब हो गयी थी। कभी पहाड़ों पे लगातार चढ़ना होता तो कभी सावधानी से नीचे उतरना। लगभग शाम  हो आयी थी, पर लग ही नहीं रहा था कि कहीं पहुंच भी रहे है। एक पल को जैसे महसूस होता कि पहाड़ों के बीच फंस से गए है। न कोई तय रास्ता कि लौटा जा सके, और न ही यह तय किया जा सके कि अब हम कहीं पहुंच गए है और वहाँ से इतना और चलना है। पर कहते है न कि दर्द जब हद से गुजर जाए तो दर्द का भी एहसास नहीं होता, इतना थक चूंके थे कि अब लग रहा था बस बढ़ते जाना है, कभी न कभी पहुंच जाएंगे। दूसरी ओर इसी जुनून से साथ के बहुत से लोग आगे बढ़ रहे थे। जहाँ कहीं भी मैं थोड़ी देर के लिए बैठ जाता, पास से गुजरता कोई न कोई व्यक्ति जरूर बोलता "उठो भगत! आगे बढ़ो।"  फ़ोटो : ACP  उनके भगत कहने के अंदाज से बड़ा साहस मिलता

सतपुड़ा की यात्रा। (भाग-०४)

मुबारक जी ने जिस तरह से नागद्वारी के बारे में बताया था, लग रहा था यह बहुत भव्य और चमत्कृत मेला होगा। इसलिए हम पूरी तैयारी से निकलना चाहते थे। मैंने दो बार कैमरा बैटरी चेक किया, माइक्रोफोन वैगरह सब सही थे। रात को जल्दी सोना था, फिर भी कुछ लिखते हुए एक बज ही गए और स्वभावतः सुबह नींद नहीं खुली। तकरीबन साढ़े एग्यारह में हम पहाड़ों की ओर निकल गए। जैसे-जैसे पहाड़ों की ओर बढ़ते गए, उत्सुकता उफान मारने लगी।  धुन्ध और हरियाली से ढ़का पहाड़ बहुत खूबसूरत दिख रहा था। सबसे ऊंची चोटी को देख लोग कह रहे थे कि वहीं पहुंचना है। इतनी ऊंचाई को चढ़ना है, देख कर रोमांचक भी लग रहा था और ऐसे भी कि कितने समय में वहाँ पहुंच पाएंगे। फिर वहाँ से सबकुछ कैसा दिखता होगा। जब हिमालय में घूम रहा था, तो ऐसे ही एकदिन पहाड़ पर चढ़ने निकल गया, जितना चढ़ता जाता पहाड़ उतना और ऊंचा होता जाता। जैसे पहाड़ के सामने जाकर यह एहसास होता होता है कि मनुष्य कितना बौना है। पचमढ़ी से लगभग छह किलोमीटर अंदर पहाड़ों की ओर तक जिप्सी छोड़ देती है। खतरनाक रूट होने के कारण उधर कोई भी अपने प्राइवेट वाहन से नहीं जा सकता। केवल वहाँ वही जिप्सी जा सकती है, जिसे

"मुझे रात का ख्वाब होना अच्छा लगता है"

सुबह जब सूरज आया भी नहीं होता, सारा सिस्टम मेरी कानों में चिल्लाने लगता है मेरी आँखों में ही नहीं मेरी नाक तक में पानी डाल देता है और बिस्तर से घसीट कर बाथरूम तक मुझे ले जाता है। हमेशा की तरह मेरी बीवी मेरी हाथो में टिफिन पकड़ा देती है और किसी अन्य काम में लग जाती है मैं अनमने मन से फ्लैट से नीचे उतरता हूँ, ऑटो पकड़ता हूँ और मेट्रो पहुंचता हूँ मेट्रो के सैकड़ों बेमन चेहरों में एक चेहरा मेरा भी होता है। ऑफिस में वर्षों से किए जा रहे काम को मैं दोहराता जाता हूँ, और जब तक कि सारा सिस्टम मेरे माथे से उतरकर शाम को अगली सुबह तक के लिए, मुझे आज़ाद नहीं कर देता, मैं वहीं बैठा रहता हूँ और उस पुराने डेस्कटॉप को ताकता रहता हूँ। शाम का होना मेरे जीवन में सूर्योदय के होने जैसे है जैसे जैसे अंधेरा छाता है, मेरा जेहन खिलता जाता है, और मैं ऊर्जावान महसूस करने लगता हूँ। ऐसा लगने लगता है, कि रात अपनी है, सारा आसमान अपना है। दिन की अपेक्षा, रात मुझे ज्यादा अपनी लगती है जहाँ रात के अंधेरे में, मुझे कोई अपने मन की करने से, रोक नहीं रहा होता, कोई मुझे घंटो आसमान में, झांकने से भी नहीं रोकता और न ही

सतपुड़ा की यात्रा। (भाग-०३)

वे पानी में जहर मिला देते है। मुबारक जी के पास एक साइकल थी। और यह दिलचस्प था कि अब मैं पचमढ़ी की गलियों को साइकल से नाप सकूँगा। कोहरे और ढलान नुमा सड़क के कारण मुबारक साइकल देने में थोड़े घबरा इसलिए रहे थे कि कहीं कोई हादसा न हो जाएं। पहले दिन जब मैं पचमढ़ी पहुँचा था तब एक रेस्टोरेंट में इनसे मुलाकात हुई थी। अधेड़ उम्र के मुबारक जी की पैदाइश पचमढ़ी की ही है, और इन्होंने अपने सामने पचमढ़ी और इसके आसपास के जल-जंगल और आदिवाशियों को इतिहास का हिस्सा बनते देखा है। पहाड़ों की यही खास बात होती है कि उम्र का असर शरीर पर नहीं दिखता। आप स्वच्छ और एनरजेटिक वातावरण में रहते है, फिर इसका असर सीधा बॉडी पर तो होता ही है। शायद इसलिए ही मुबारक अपने उम्र को मात देते नजर आते। रात के खाने के दौरान मुबारक ने आदिवाशियों के बारे में भी कई दिलचस्प बातें बताई। वे बताते है कि सतपुड़ा के घने जंगल में आज भी कई आदिवाशी समूह रहते है जबकि कईयों को सरकार ने मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया है। आदिवाशी इतनी आसानी से अपनी जमीन नहीं छोड़ते इसलिए सरकार ने पैसों का तगड़ा प्रलोभन दे कर जंगल से उन्हें बाहर निकाला है। मुबारक बताते ह

सतपुड़ा की यात्रा। (भाग-०२)

ठंड में गहरी नींद आती है, चार-पांच घंटे में ही नींद पूरी हो जाती फिर भी मन होता है कम्बल ओढ़े बेड पर पड़े रहे। ऐसा लगता है ठंड राजाओं का मौसम है। आप कम्बल में पड़े रहे, और सुबह सुबह चाय मिल जाए, नास्ता-खाना मिल जाया करे। सुबह कब से यादव जी (हमारे होस्ट) गेट खटखटा रहे थे, मैं तकिए में सर गोते उनको इग्नोर मार रहा था। जबकि सुबह के नौ बज गए थे। अन्ततः मैं जागा, यादव जी चाय के साथ ही पचमढ़ी के बारे में बताने लगे। मध्यप्रदेश का हिल स्टेशन व सतपुड़ा की रानी के रूप में पचमढ़ी की पहचान है। यह पहले गौड़ शासक की जागीर हुआ करती थी जिसे अंग्रेज़ो ने छल कपट से 1840 ई में छीन लिया था। यादव जी बताते है कि गर्मियों के मौसम में यह अंग्रेजों का ठिकाना हुआ करता था। हालांकि बाद में यह क्षेत्र 1967 तक मध्यप्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी रही। परन्तु बाद में श्री गोविंद नारायण सिंह ने पचमढ़ी में राजधानी हस्तांतरण के अभ्यास को बंद करवा दिया। जब मैं बस से पचमढ़ी में उतरा था, तब शाम के चार बजे होंगे। चारो ओर कोहरा था और ठंड भी लग रही थी। जबकि पिपरिया में मौसम नॉर्मल ही था। पिपरिया तक ट्रेन से पहुँच कर मैंने बस ले लिया

सतपुड़ा की यात्रा। (भाग-०१)

मुझे याद है कि एक बार मैं दक्षिण भारत की यात्रा पे था और इरोड नामक छोटे से शहर में ठहरा हुआ था। बल्कि शहर के बजाय क़स्बा कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा।तो,इरोड मुझे बेहद ख़ूबसूरत लगी थी, मुझे वहाँ की सड़कों पे रात को टहलना बहुत भाता था ,और ऐसी ही एक और शहर थी केरला की, सुल्तानबथेरी। तो जैसे जैसे मैं भारत के अलग अलग हिस्सों को देखता गया, यह लिस्ट कुंगरी, रिकांगपिओ से होते हुए और लंबी होती गयी कि कभी न कभी यहां ऐसे जगहों पे आकर बस जाऊँगा और इस शहर में अपना एक घर बनाऊंगा। बाद में लगातार ट्रेवलिंग से यह समझ पाया कि यह निहायत ही कितनी बेकार सोच थी। ऐसी ही एक खूबसूरत जगह है पचमढ़ी। पचमढ़ी से ठीक पहले घने जंगल के बीच, रास्ते किनारे एक तालाब पड़ता है, इसी तालाब किनारे अरूंदती रॉय ने अपना एक प्लॉट खरीदा था जो एक लंबे विवाद के बाद कैंसिल हो गया, वे वहाँ घर नहीं बना पाई। MP में ग्रीन बेल्ट को लेकर बेहद सख्त कानून है। और पूरा MP इतना हरा-भरा है कि कहीं बस जाने का मन तो सहज ही हो जाता है। और खासकर पचमढ़ी में। पर हमारी सभ्यता ने जंगलों से गाँव और फिर नगर तक की यात्राएं अपनी सुविधा के लिए ही किया है, अब बढ़ती