[“ओ भगत! किधर को सोने का?”]
कई दिनों से बारिश नहीं हो रही थी, इस कारण भक्तों में पहाड़ चढ़ते यह आम चर्चा थी कि कहीं भोले नाराज़ तो नहीं। इतनी संख्या में लोग नागद्वारी आते है, कुछ घंटे-दिन के लिए ही सही पहाड़ों पे अपना ठिकाना बनाते है, ऐसे में गंदगी भी वे आसपास ही फैलाते है। एक बारिश आकर सारी गंदगी बहा ले जाती है। इसलिए इस मेले में बारिश की प्रमुख भूमिका है।
जब हम चित्रशाला पहुँचे, शाम के लगभग साढ़े सात बज रहे थे। इसलिए आगे बढ़ना मुमकिन नहीं था। कुछ प्रयास से हमें चाय मिल गए। इतना थकने के बाद चाय जैसे राहत थी। पर कुछेक चुस्की के बाद और पीना सम्भव नहीं था। यह पूरे दिन भर से अबतक में चौथी चाय थी जिसे फेंकना पड़ा था। अब समझ आ गया था कि नागपुर के लोग शक्कर ही पीते है। आसपास देखा, सोने की कोई जगह हमें नहीं दिखी, पहाड़ों की खोची तक मे लोग एडजेस्ट हो गए थे। सो तय किया आगे बढ़ना ही सही होगा। मैंने बैग से टॉर्च निकाला। और हम आगे बढ़ गए। एक जगह ऊँचाई से नीचे उतरने के लिए सीढ़ी लगी थी। अंधेरे में हम उतना ही देख पाते है जितना टॉर्च हमें दिखा पाता है, जैसे ही दोस्त ने पैर रखा, उनका पैर सीधा नीचे चला गया। पास में ही खाई थी, गिड़ते तो जाते। सीढ़ी ऊपर ही टूटी हुई थी, जिसे टॉर्च की रोशनी में हमने साफ़ साफ़ देखा नहीं था। अचानक से धकधकी बढ़ गयी थी।
न जाने सुबह से कितने भक्त ऐसे मिले थे जिन्होंने या तो ड्रिंक किया था या भांग वैगरह खाया था, ऐसे में डर लग रहा था कि कोई भक्त अगर इधर से इस वक़्त गुजरा तो कोई हादसा न हो जाए। कुछ देर हम वहीं बैठे रहे। और इस दौरान एकाध लोग ही उधर से गुज़रे। हमने उन्हें बता दिया और आगे बढ़ गये। अब तय कर लिया कि आगे जहाँ भी मंदिर मिलेगा, वहीं रुक जाएँगे। एक बार खाई में गए तो सब छूट जाएगा यहीं। परिवार वाले ढूँढ भी नहीं पाएँगे।
आगे थोड़ी ही दूर पे ही चिंतामणी मंदिर थी। यहाँ सबसे अधिक भिड़ थी। ऊपर मंदिर में दर्शन को जाने की इक्छा नहीं हुई, पैर जैसे अब जवाब दे गया था। वहीं बहुत से भक्त बैठे थे, मैं भी पलर गया। इतने में एक भक्त ने खाने की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दिए, ऐसा लगा शिव सबकुछ ख़ुद हैंडल कर रहे है। सुबह का खाया हुआ था, शायद इसलिए या पता नहीं, जैसे ही एक निवाला लिया चित्त तृप्ति से भर गया। क्या लाजवाब टेस्ट था।
खाने के बाद बहुत देर तक इधर उधर घूमता रहा। किर्तन से लेकर भंडारे के गतिविधि सबकुछ देखते हुए उबासी आने लगी। मन में यही चल रहा था कि बैठे रहेंगे जब तक कोई पूछेगा नहीं, किसी से सोने की जगह को नहीं पूछेंगे। हम से भी दूर-दूर से यात्री आए थे, ऊपर से पहाड़ी की ऊँची चोटी पे इतनी शानदार व्यवस्था सबकुछ जादू जैसा था। इसलिए जगाकर सबकुछ देखते रहने को भी मन कर रहा था। मैं सोच रहा था कि ये पहाड़ क्या सोच रहें होंगे, क्या इन्हें आस्चर्य होता होगा कि ये कौन लोग हमारे बीच आ गये है।
रात के साढ़े एग्यारह बजे एक रसोईये ने हमसे पूछा “ओ भगत! किधर को सोने का?”
हमने बिना किसी भाव के उनकी ओर देखा, वे पास बैठ गए। उन्हें यह जानकर इतनी ख़ुशी हुई कि हम दिल्ली से इस मेले में आए है, वे हमें नागपुर डॉक्टर अस्सोसिएशन की खोली में ले गए। वहाँ बड़ी सहजता से डॉक्टर ने हमें हमारी सोने की जगह दिखाते हुए कहा “आपलोग थक गए होंगे। सो जाइए।”
मैं लेट गया। नींद आने के बजाय मैं सोच रहा था दुनिया में कितने अच्छे-अच्छे लोग है। शहर में बैठ कर हम क्या क्या सोचते है। मेले में सबकुछ का इतना ध्यान रखा गया है कि दवा-डॉक्टर तक की व्यवस्था है। क्या इसे हम महज़ धार्मिक आडंबर कहेंगे या सचमुच में कुछ है जो लोगों को इतनी दूर पहाड़ों की इस ऊँचाई पे खींच लाता है। दूसरी तरफ मुझे अच्छा भी लग रहा था कि मैं पहाड़ों की ऊँची चोटी पर राजा की तरह सो रहा हूँ। अहा! क्या सुख है। इतने में डॉक्टर आते है और कहते है “ज़रा, पैर दिखाइए”
मना करने के बावजूद वे पैरों का इतना सुंदर मालिश करते है कि महसूस होता है सारा थकान उतर गया। जब चलते-चलते पैर थक जाता है तब शरीर में पैर की भी भार महसूस होने लगती है। डॉक्टर ने उन भारों को दूर कर दिया था और जैसे पैर फिर से ज़िन्दा हो गए थे।
अब शिव है या नहीं, मेरे लिए यह प्रश्न रह ही नहीं गया था। बस लग रहा था कोई सबकुछ देख रहा है और चीज़ों को सजा रहा है।
#ACP_in_Satpuda
कई दिनों से बारिश नहीं हो रही थी, इस कारण भक्तों में पहाड़ चढ़ते यह आम चर्चा थी कि कहीं भोले नाराज़ तो नहीं। इतनी संख्या में लोग नागद्वारी आते है, कुछ घंटे-दिन के लिए ही सही पहाड़ों पे अपना ठिकाना बनाते है, ऐसे में गंदगी भी वे आसपास ही फैलाते है। एक बारिश आकर सारी गंदगी बहा ले जाती है। इसलिए इस मेले में बारिश की प्रमुख भूमिका है।
जब हम चित्रशाला पहुँचे, शाम के लगभग साढ़े सात बज रहे थे। इसलिए आगे बढ़ना मुमकिन नहीं था। कुछ प्रयास से हमें चाय मिल गए। इतना थकने के बाद चाय जैसे राहत थी। पर कुछेक चुस्की के बाद और पीना सम्भव नहीं था। यह पूरे दिन भर से अबतक में चौथी चाय थी जिसे फेंकना पड़ा था। अब समझ आ गया था कि नागपुर के लोग शक्कर ही पीते है। आसपास देखा, सोने की कोई जगह हमें नहीं दिखी, पहाड़ों की खोची तक मे लोग एडजेस्ट हो गए थे। सो तय किया आगे बढ़ना ही सही होगा। मैंने बैग से टॉर्च निकाला। और हम आगे बढ़ गए। एक जगह ऊँचाई से नीचे उतरने के लिए सीढ़ी लगी थी। अंधेरे में हम उतना ही देख पाते है जितना टॉर्च हमें दिखा पाता है, जैसे ही दोस्त ने पैर रखा, उनका पैर सीधा नीचे चला गया। पास में ही खाई थी, गिड़ते तो जाते। सीढ़ी ऊपर ही टूटी हुई थी, जिसे टॉर्च की रोशनी में हमने साफ़ साफ़ देखा नहीं था। अचानक से धकधकी बढ़ गयी थी।
न जाने सुबह से कितने भक्त ऐसे मिले थे जिन्होंने या तो ड्रिंक किया था या भांग वैगरह खाया था, ऐसे में डर लग रहा था कि कोई भक्त अगर इधर से इस वक़्त गुजरा तो कोई हादसा न हो जाए। कुछ देर हम वहीं बैठे रहे। और इस दौरान एकाध लोग ही उधर से गुज़रे। हमने उन्हें बता दिया और आगे बढ़ गये। अब तय कर लिया कि आगे जहाँ भी मंदिर मिलेगा, वहीं रुक जाएँगे। एक बार खाई में गए तो सब छूट जाएगा यहीं। परिवार वाले ढूँढ भी नहीं पाएँगे।
आगे थोड़ी ही दूर पे ही चिंतामणी मंदिर थी। यहाँ सबसे अधिक भिड़ थी। ऊपर मंदिर में दर्शन को जाने की इक्छा नहीं हुई, पैर जैसे अब जवाब दे गया था। वहीं बहुत से भक्त बैठे थे, मैं भी पलर गया। इतने में एक भक्त ने खाने की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दिए, ऐसा लगा शिव सबकुछ ख़ुद हैंडल कर रहे है। सुबह का खाया हुआ था, शायद इसलिए या पता नहीं, जैसे ही एक निवाला लिया चित्त तृप्ति से भर गया। क्या लाजवाब टेस्ट था।
खाने के बाद बहुत देर तक इधर उधर घूमता रहा। किर्तन से लेकर भंडारे के गतिविधि सबकुछ देखते हुए उबासी आने लगी। मन में यही चल रहा था कि बैठे रहेंगे जब तक कोई पूछेगा नहीं, किसी से सोने की जगह को नहीं पूछेंगे। हम से भी दूर-दूर से यात्री आए थे, ऊपर से पहाड़ी की ऊँची चोटी पे इतनी शानदार व्यवस्था सबकुछ जादू जैसा था। इसलिए जगाकर सबकुछ देखते रहने को भी मन कर रहा था। मैं सोच रहा था कि ये पहाड़ क्या सोच रहें होंगे, क्या इन्हें आस्चर्य होता होगा कि ये कौन लोग हमारे बीच आ गये है।
रात के साढ़े एग्यारह बजे एक रसोईये ने हमसे पूछा “ओ भगत! किधर को सोने का?”
फ़ोटो : संजय सैलानी |
हमने बिना किसी भाव के उनकी ओर देखा, वे पास बैठ गए। उन्हें यह जानकर इतनी ख़ुशी हुई कि हम दिल्ली से इस मेले में आए है, वे हमें नागपुर डॉक्टर अस्सोसिएशन की खोली में ले गए। वहाँ बड़ी सहजता से डॉक्टर ने हमें हमारी सोने की जगह दिखाते हुए कहा “आपलोग थक गए होंगे। सो जाइए।”
मैं लेट गया। नींद आने के बजाय मैं सोच रहा था दुनिया में कितने अच्छे-अच्छे लोग है। शहर में बैठ कर हम क्या क्या सोचते है। मेले में सबकुछ का इतना ध्यान रखा गया है कि दवा-डॉक्टर तक की व्यवस्था है। क्या इसे हम महज़ धार्मिक आडंबर कहेंगे या सचमुच में कुछ है जो लोगों को इतनी दूर पहाड़ों की इस ऊँचाई पे खींच लाता है। दूसरी तरफ मुझे अच्छा भी लग रहा था कि मैं पहाड़ों की ऊँची चोटी पर राजा की तरह सो रहा हूँ। अहा! क्या सुख है। इतने में डॉक्टर आते है और कहते है “ज़रा, पैर दिखाइए”
मना करने के बावजूद वे पैरों का इतना सुंदर मालिश करते है कि महसूस होता है सारा थकान उतर गया। जब चलते-चलते पैर थक जाता है तब शरीर में पैर की भी भार महसूस होने लगती है। डॉक्टर ने उन भारों को दूर कर दिया था और जैसे पैर फिर से ज़िन्दा हो गए थे।
अब शिव है या नहीं, मेरे लिए यह प्रश्न रह ही नहीं गया था। बस लग रहा था कोई सबकुछ देख रहा है और चीज़ों को सजा रहा है।
#ACP_in_Satpuda
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