【चलते-चलते पाव हो जाएंगे पत्थर देखना】
इस तर्ज पर कि चमत्कार क्षणिक होता है, उसे रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता, मैंने मान लिया था कि मेरे कैमरे ने इसी कारण काम करना बंद कर दिया है।
पर मैं चलते हुए लगातार सोच रहा था कि आखिर कौन सी चीज़ है पहाड़ों के उस ऊंचाई पर जहां लोग इतनी खुशी-खुशी जा रहे। जबकि चलते चलते मेरी हालत खराब हो गयी थी। कभी पहाड़ों पे लगातार चढ़ना होता तो कभी सावधानी से नीचे उतरना। लगभग शाम हो आयी थी, पर लग ही नहीं रहा था कि कहीं पहुंच भी रहे है। एक पल को जैसे महसूस होता कि पहाड़ों के बीच फंस से गए है। न कोई तय रास्ता कि लौटा जा सके, और न ही यह तय किया जा सके कि अब हम कहीं पहुंच गए है और वहाँ से इतना और चलना है।
पर कहते है न कि दर्द जब हद से गुजर जाए तो दर्द का भी एहसास नहीं होता, इतना थक चूंके थे कि अब लग रहा था बस बढ़ते जाना है, कभी न कभी पहुंच जाएंगे। दूसरी ओर इसी जुनून से साथ के बहुत से लोग आगे बढ़ रहे थे। जहाँ कहीं भी मैं थोड़ी देर के लिए बैठ जाता, पास से गुजरता कोई न कोई व्यक्ति जरूर बोलता "उठो भगत! आगे बढ़ो।"
उनके भगत कहने के अंदाज से बड़ा साहस मिलता। यहां मेले में आने वाला हर कोई भगत था। सब आगे बढ़ते हुए जोड़ से आवाज लगाते "हरिहर" और आवाज एक नई ऊर्जा पहाड़ों से बटोर लाती। मैं किसी से पूछता "भगत! और कितना दूर?" इसपर हमेशा यही जवाब मिलता कि, बस थोड़ी दूर और।
मैं चलता गया। देर शाम हम पहाड़ की ऊंचाई पे जब पहुंचे, वहाँ एक मंदिर था। मंदिर में लोग पूजा कर रहे थे, कुछ वहीं पहाड़ तले जगह तलाश आराम कर रहे थे। आसपास गंदगी भी थी। मैंने चारो ओर नजर दौड़ाया। मुझे लगा सतपुडा की हज़ार आंखें मेरी ओर देख रही है। इतने ऊंचे ऊंचे पहाड़ और उनपर लगे घने जंगल। कितना पुराणा होगा न जल-जंगल और पहाड़ों का समाज। इनकी अपनी इतिहास होगी, अपने पात्र भी होंगे। हमारी तरह।
लगभग अंधेरा छा चुका था। दूर-दूर तक केवल चंद मनुष्यों की आवाज थी, पर जिस तरह पूरा पहाड़ शांत था, उनमें मनुष्य की आवाज कुछ नहीं। मेरे मन में अब भी कौतूहल था लोग क्यों आते है इतने दूर, मैं ही क्यों आया। जबकि आगे न जाने अभी और कितना चलना है।
लोकप्रिय संस्कृति में हम चीज़ों को जानने समझने से पहले उन्हें क्रिटिसाइज करना सिख लेते है। हम लोगों की आस्थाओं को आडम्बर कहते है, जबकि धर्म-आस्था पर टिप्पणी करना बिल्कुल अलग है, इसके महसूसने से। मुझे ऐसा महसूस होने लगा था कि यह यात्रा शिव तक पहुंचने के लिए थी नहीं, वे तो एक मार्ग थे, प्रेरणा थे, पर पहुंचना खुद तक था।
यह बात बिना पहाड़ चढ़े नहीं समझ आती। बहुत पहले के जीनियस लोगों ने आस्था-धर्म सबकुछ मनुष्य के खुद की खोज के लिए बनाया होगा, मूल तो यही है भी। आडम्बर तो बहुत बाहरी आवरण है।
जब तक घुसेंगे नहीं, समझेंगे नहीं।
#ACP_in_Satpuda
इस तर्ज पर कि चमत्कार क्षणिक होता है, उसे रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता, मैंने मान लिया था कि मेरे कैमरे ने इसी कारण काम करना बंद कर दिया है।
पर मैं चलते हुए लगातार सोच रहा था कि आखिर कौन सी चीज़ है पहाड़ों के उस ऊंचाई पर जहां लोग इतनी खुशी-खुशी जा रहे। जबकि चलते चलते मेरी हालत खराब हो गयी थी। कभी पहाड़ों पे लगातार चढ़ना होता तो कभी सावधानी से नीचे उतरना। लगभग शाम हो आयी थी, पर लग ही नहीं रहा था कि कहीं पहुंच भी रहे है। एक पल को जैसे महसूस होता कि पहाड़ों के बीच फंस से गए है। न कोई तय रास्ता कि लौटा जा सके, और न ही यह तय किया जा सके कि अब हम कहीं पहुंच गए है और वहाँ से इतना और चलना है।
पर कहते है न कि दर्द जब हद से गुजर जाए तो दर्द का भी एहसास नहीं होता, इतना थक चूंके थे कि अब लग रहा था बस बढ़ते जाना है, कभी न कभी पहुंच जाएंगे। दूसरी ओर इसी जुनून से साथ के बहुत से लोग आगे बढ़ रहे थे। जहाँ कहीं भी मैं थोड़ी देर के लिए बैठ जाता, पास से गुजरता कोई न कोई व्यक्ति जरूर बोलता "उठो भगत! आगे बढ़ो।"
फ़ोटो : ACP |
उनके भगत कहने के अंदाज से बड़ा साहस मिलता। यहां मेले में आने वाला हर कोई भगत था। सब आगे बढ़ते हुए जोड़ से आवाज लगाते "हरिहर" और आवाज एक नई ऊर्जा पहाड़ों से बटोर लाती। मैं किसी से पूछता "भगत! और कितना दूर?" इसपर हमेशा यही जवाब मिलता कि, बस थोड़ी दूर और।
मैं चलता गया। देर शाम हम पहाड़ की ऊंचाई पे जब पहुंचे, वहाँ एक मंदिर था। मंदिर में लोग पूजा कर रहे थे, कुछ वहीं पहाड़ तले जगह तलाश आराम कर रहे थे। आसपास गंदगी भी थी। मैंने चारो ओर नजर दौड़ाया। मुझे लगा सतपुडा की हज़ार आंखें मेरी ओर देख रही है। इतने ऊंचे ऊंचे पहाड़ और उनपर लगे घने जंगल। कितना पुराणा होगा न जल-जंगल और पहाड़ों का समाज। इनकी अपनी इतिहास होगी, अपने पात्र भी होंगे। हमारी तरह।
लगभग अंधेरा छा चुका था। दूर-दूर तक केवल चंद मनुष्यों की आवाज थी, पर जिस तरह पूरा पहाड़ शांत था, उनमें मनुष्य की आवाज कुछ नहीं। मेरे मन में अब भी कौतूहल था लोग क्यों आते है इतने दूर, मैं ही क्यों आया। जबकि आगे न जाने अभी और कितना चलना है।
लोकप्रिय संस्कृति में हम चीज़ों को जानने समझने से पहले उन्हें क्रिटिसाइज करना सिख लेते है। हम लोगों की आस्थाओं को आडम्बर कहते है, जबकि धर्म-आस्था पर टिप्पणी करना बिल्कुल अलग है, इसके महसूसने से। मुझे ऐसा महसूस होने लगा था कि यह यात्रा शिव तक पहुंचने के लिए थी नहीं, वे तो एक मार्ग थे, प्रेरणा थे, पर पहुंचना खुद तक था।
यह बात बिना पहाड़ चढ़े नहीं समझ आती। बहुत पहले के जीनियस लोगों ने आस्था-धर्म सबकुछ मनुष्य के खुद की खोज के लिए बनाया होगा, मूल तो यही है भी। आडम्बर तो बहुत बाहरी आवरण है।
जब तक घुसेंगे नहीं, समझेंगे नहीं।
#ACP_in_Satpuda
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