न दिन होता है अब
और न ही रात होती है
बस ख्यालों में उनसे मुलाकात होती है।
मन के दरवाजे पे बैठा दरबान
बार-बार किसी के आहट का संकेत देता है
देखती है नजरे उधर
पर उनके अनुपस्थिति भर से नजरें खामोश होती है।
दूसरे कमरे में बैठा
मेरा छोटा भाई,
थोड़ी-थोड़ी देर पे
किसी सुडोको को सुलझा लेने पर
खुशी से ऐसे उछल पड़ता है
जैसे कभी उनके आहट पर
मैं उछल जाया करता था।
कौन जाकर उनसे कहे भला
कि विरह का आलम
जिस्म के जर्रे-जर्रे को ऐसे तोड़ रहा है
कि मिलने की इबादत में ही
यह जिंदगी तमाम होती है।
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