मसलन खिड़की किनारे बैठा मैं, जो कि यात्रा में मुझे अधिक पसंद है, यही सोच रहा होता हूँ कि पहाड़ो के किनारे से होकर बस गुजर कैसे जाती है जबकि बगल में ही तो गहरी खाई है।या फिर जब बस गांधी सेतू से गुजरती है तब मैं सोचता हूँ कि पूल टूट कर गिर भी तो सकती है या बस का संतुलन भी तो बिगड़ सकता है।और अगर बस गंगा में गिर गयी तब क्या होगा, मुझे तो तैरना भी नहीं आता।
ड्राइवर भी आदमी होता है, ऐसे खतरनाक पलों में वह क्या सोचता होगा? और मैं तो सोचता रहता हूँ कि जब सारी दुनिया सुबह उठने के लिए संघर्ष कर रही होती है तब भी मेरे गांव से होकर गुजरने वाली बस का ड्राइवर जाड़े में भी इतनी सुबह बस कैसे ले आता है? या रात-रात भर ट्रेन का ड्राइवर कैसे जगा रह जाता है?
दिन में सोने से रात भर की नींद पूरी हो जाती होगी क्या? जब दिन में वह सोता होगा तब क्या उसे सपने आते होंगे?
यात्रा में कुछ बातें अनवरत मेरे दिमाग मे चलती रहती है।चाहे मैं ट्रेन में बैठा होऊँ या किसी बस में।ट्रेन और बस की रफ्तार मेरे मन की गति के समानांतर होती है, ट्रेन के दो पटरियों की तरह।जिसके एक हिस्से पे ट्रेन और बस चल रहा होता है तो दूसरे हिस्से पे मेरा मन।
और फिर यात्रा में केवल गाड़ी ही नहीं चला करती।गाड़ी के अंदर बैठे हम भी अनवरत चलते रहते है तभी हरेक यात्रा के बाद हम थका-थका महसूस करते है।
दो पटरियों पे दौड़ता तेज गति का ट्रेन पटरी भी कितने सलीके से बदलता है।और गहरी नदी के ऊपर से गुजरती ट्रेन या खाई के नजदीक से जाती बस बड़े ही सलीके से आगे निकल जाती है।
तो हम सब जाने अनजाने एक खास ढ़ंग के सलीके को फॉलो कर रहे है।मुझे नहीं पता कि यह सलीका आता कहां से है।पर यही हमें बचा लेती है...कुछ खतरों से तो कुछ टकराव से।और चीज़े लगभग संतुलन में बनी हुई है।
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