बात तब की है जब 'गजनी' फ़िल्म आयी थी।फ़िल्म से नायक इतना प्रभावित हुआ था कि वह तब से डायरी लिखने लगा था।और अक्सर डायरी वह रात को सोने से पहले लिखा करता।दिन भर स्कूल की क्लासेज-ट्यूशन और फिर शाम को क्रिकेट से थकता-उतरता उसका जिस्म देर रात को जब डायरी लिखने के लिए बैठता तो अंदर ही अंदर उसे बड़ी मोटिवेसन मिलती, यूँ ही लिखते रहने को। इसकी एक खास वजह थी।
तब स्कूल तो को-ऐड था पर क्लास में लड़के और लड़कियों को अलग बैठने के साथ ही मिलने-जुलने की साफ मनाही थी।उनके गतिविधियों पे स्पष्ट नज़र रखा जाता था।ऐसे में प्रेम होने का ख़्याल जितनी तेजी से चढ़ता उतने ही तेजी से उस माहौल में उतर भी जाता।तो सब के साथ ही नायक के लिए भी प्रेम का घटना एक फिल्मी सम्भवना थी।जब अचानक से आसमान में बादल छा जाएंगे, तेजी से हवा बहने लगेगी, फूल-पत्तियां सब में एक खास रौनक आ जायेगी जब नायिका सामने आयेगी।
Photo - ACP |
तो ऐसी ही कल्पना से ओतप्रोत नायक अपनी डायरी में प्रेम से उलझता-सुलझता रहता।खुद ही प्रेम के किसी काल्पनिक भंवर में फंसता और सोचते-सोचते सोता हुआ, क्लास में त्रिकोनमेट्री का कोई सवाल सुलझाता हुआ या क्रिकेट के मैदान में बॉल को लपकता हुआ खुद ही उस भंवर से निकल भी जाता।
पर यूनिवर्सिटी के दिनों में जब नायक को प्रेम हुआ।तो यह बिल्कुल ही उसके डायरी विमर्श से अलग था।और तो और उसने महसूस किया कि यह तो फिल्मी प्रेम से भी बिल्कुल अलग है।एक अलग ही तरह का जीवन, जो अपने आप में सृजनात्मकता से भरा होता।विरह का वह उदास दौर जब न तो कोई चुन्नू बाबू होता और न ही कोई चंद्रमुखी और न ही वक्त भर का ठहराव जहाँ वह अपनी विरह का जश्न भी मना सके।और न ही उत्सव का वह सुहाना दौर जब वह दुनिया से चीख-चीख कर कहे सके कि नायिका उससे इश्क़ करती है।
तब भी नायक कुछ सोचता था पर अगले ही पल उसकी सोच को चुनौती मिलती थी।कदम-कदम पर समाज अब भी निगरानी को खड़ा था।जबकि नायक नायिका का हाथ पकड़े यूँ ही किसी राह पे निकल जाना चाहता था।किसी वादी में उसे कोई गीत गाकर सुनाना चाहता था।खासकर वो गीत जो नायिका अक्सर गाया करती "पल-पल दिल के पास तुम रहते हो"।और न सही तो नायिका के साथ दिल्ली की गालियां छानना चाहता था।पर इन आकांक्षाओं के साथ ही प्रेम की अपनी चुनौती थी।बिल्कुल कोई नई चुनौती।
तो यह अनुभव किसी नवीन कहानी के घटने जैसा था।जिस पर कभी किसी ऐसी फ़िल्म जो अपने फिल्मीपन से बचा रह जाये, के बन जाने की उतनी ही सम्भवना थी जितनी संभावना नायक के कभी फिल्मकार बन जाने की थी।
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