बहुत ही कम दिनों तक साथ रही वह
साथ के दिनों में
जब भी वह मिलती
घंटो कभी बातचीत में
तो कभी खामोशी में कट जाती
अक्सरहाँ मिलकर
पता नहीं कौन सी आकृति कलम से
वह मेरे शरीर के अलग-अलग भागों पे बनाया करती।
कभी हाथों पे तो कभी बाहों पे
कभी पैर के निचले हिस्से पे भी कुछ बना देती
और मैं चुपचाप कभी उसके ठेहुने पर
तो कभी उसकी गोद में सर टिकाये
आंखें बंद किये रहता,
आकृति बनाती हुई वह कुछ सुनाती भी रहती
जैसे जो आकृति बना रही है
उसके बारे में कुछ सुना रही हो
मैं बहुत ध्यान से सुनता था
और बाद में उस आकृति को
ध्यान से घंटों देखा भी करता
पर वह क्या बनाती है और क्या सुनाती है
मुझे कुछ भी समझ नहीं आता
बस इतना ही सोचता मैं
कि जो वह बना रही है
कहीं न कहीं वैसी जगह जरूर होगी
और जब हम वहाँ जायेंगे
तो मुझे सबकुछ समझ आ जायेगी
उसकी वो तमाम बातें
जो वह आकृति बनाते वक्त सुनाया करती है।
अक्सर मैं एक दो दिन नहीं भी नहाता था
ऐसा लगता था जब नहाऊंगा
वे सुंदर आकृति मिट जायेगी
थोड़ी धूंधली पड़ जाएगी
और जब अगली बार मिलती वह
तो मैं कहता
सुनो न! ऐसे बना दो न कि,
कभी मिटे ही नहीं
और वह मुस्कुराती हुई कहती
मिट जाती है तभी तो मैं फिर से बनाती हूँ।
बहुत ही कम दिनों तक
साथ रही वह, और
जितने दिन भी साथ रही
उससे ज्यादा दिन हो गए
अब उन आकृतियों के मिटे हुए।
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