ट्रैफिक की भीड़ में ही नायक को याद आती कि उसका रजिस्टर भर गया है और उसे एक नया रजिस्टर लेना है।हर दफ़े वह तय करता कि कल विश्वविद्यालय मेट्रो से निकलते ही ले लेगा।और जब विश्वविद्यालय से निकल रहा होता तो मन मे ख्याल आता कि यहां शायद महंगा मिले, और अच्छा भी न हो।कभी मुखर्जी नगर चला जाऊँगा, जाता ही तो रहता हूँ।
पर न कभी वह मुखर्जी नगर इधर जा पाया और न ही उसने रजिस्टर विश्वविद्यालय मेट्रो पे खरीदा।इस दरमियां कितनी रचना जो वह लिखता रजिस्टर के अभाव में शक्ल न ले सकी।उसे इस बात का खासा मलाल तो था पर फिर भी वह मानता था कि उन रचनाओं को लिखने की अभी उपयुक्त वक्त नहीं थी,शायद।
बावजूद जब ट्रैफिक में उसे याद आती कि आज भी उसने रजिस्टर नहीं खरीदा है तो मन ही मन थोड़ा खिन्न महसूस होता उसे।
उस शाम ITO की ट्रैफिक सामान्य दिनों से ज्यादा लंबी और उबाउं थी।बस की खिड़की से बाहर झाँकता वह रजिस्टर के बारे में ही सोच रहा था।तभी क्या न सुझा की उसने मोबाइल निकाला और व्हाट्स एप्प पे एक मैसेज लिखा-
'सुनो न! कल आती हुई एक रजिस्टर लेती आना'।
उधर से जल्द ही रिप्लाई आ गयी 'मैं क्यों लेती आऊं?"
नायक आये रिप्लाई से थोड़ा सा असमंजस में पड़ गया कि वह क्या जवाब दे।सो कुछ वह लिखता रहा और मिटाता भी रहा।उधर वह भी ऑनलाइन ही थी।अंततः उसने लिखा "तुम्हारा मन! मत लाना।"
Photo - ACP |
नायक ने लिख तो दिया था पर वह चाहता था कि वह रजिस्टर लेती आये।रजिस्टर को लाती हुई जितनी देर भी वह रजिस्टर को अपने पास रखेगी, उसपे उसकी उंगलियों की छाप पड़ जाएगी।फिर उन छाप को वह पेंसिल से उगा लेगा।या लाती हुई उसके मन की ढ़ेरो बातें रजिस्टर के पन्नों पे उग आयेगी।जिसे वह कलम से कविता का रूप दे देगा।और ऐसा भी होगा कि रजिस्टर लाती हुई वह उसके बारे में ही सोच रही होगी।
नायक इंतजार करता रहा कि वह कुछ लिखेगी।उधर वह कुछ लिखती रही और मिटाती रही।डिसप्ले केवल होता रहा "typing..."
"रजिस्टर के बदले चाय मिलेगी तो लाऊंगी वरना कौन है आप?" नायिका ने इतना लिखकर एक इमोजी लगा दिया था।नायक समझ नहीं पाया कि वह पूछ रही है या मजाक कर रही है।और अगर वह पूछ ही रही है तो वह क्या जवाब दे।
'कौन है वह' उसके लिए। महज यह एक प्रश्न ही था या भाव की अभिव्यक्ति मात्र थी।नायक उलझ सा गया था।जबकि नायक जानता था कि वह उसका प्रेमी है।फिर भी वह सोचता रहा और उधर वह भी नायक को सोचती हुई महसूस करती रही।दोनों अब भी ऑनलाइन थे पर कोई कुछ नहीं लिख रहा था।
नायक सोच रहा था, उधर नायिका नायक को सोचता हुआ देख रही थी।वह देख रही थी कि नायक हर बार की तरह इस बार भी ज्यादा सोचने लगा है।जबकि एक-दूसरे के लिए तो 'कौन?' होने का प्रश्न ही उनके लिए व्यर्थ था।
एक-दूसरे के साथ को जीते हुए वे क्या अब इतने दूर आ गए थे कि संबंध को नाम देना जरूरी था? क्या संबंध बेनाम नहीं रह सकता? और क्या संबंध की प्रगाढ़ता ही उनकी जीवंतता नहीं है? फिर कौन थे वे।और क्या नायक यह कह दे कि वह उससे एक खास जुड़ाव महसूस करता है।जुड़ाव, जो हर पल नायक को नायिका की ओर खींचती है।जुड़ाव, जो नायक घंटो नायिका के साथ बिताने के बाद भी वक्त का कम पड़ जाना समझता है।जुड़ाव,जिसमें नायक नायिका के लिए टॉलीवुड तक हीरो बन जाना पसंद करता है।जुड़ाव, जिसमें नायक समय से परे जाकर उसे कविता-कहानी सुनाते रहना चाहता है।जुड़ाव, जिसमें नायक नायिका की आँखों मे झाँकते हुए उसे घंटो सुनते रहने की तमन्ना रखता है।
जीवन में कई द्वंद आते है।नायक का द्वंद यह था कि क्या वह फिर कह दे कि वह उससे एक खास जुड़ाव महसूस करता है।और उधर नायिका इस द्वंद में थी कि कहीं उसने गलत प्रश्न तो नहीं कर दिया।नायक इस द्वंद में था कि कहीं नायिका ने पूछकर महज मजाक ही तो नहीं किया।और उधर नायिका इस द्वंद में थी कि क्या उसने मजाक ही किया है या वह सचमुच जानना चाहती है।और क्या वह जानती नहीं।तो फिर क्या वह नायक के मुंह से सुनना चाहती है।
जो भी था।व्हाट्स पे दोनों अब भी ऑनलाइन ही थे।कुछ देर में नायक ने लिखा "कौन हूँ मैं तुम्हारे लिए, यह मैं भी तो नहीं जानता।तुम ही कभी बता देना"
उधर नायिका ने भी लिखा "कल मैं स्पाइरल रजिस्टर लेती आऊंगी"
दोनों को एक-एक मैसेज एक साथ ही मिले।जीवन का द्वंद अब भी कायम थी।पर ITO की ट्रैफिक अब खत्म हो गयी थी।उधर नायिका की माँ ने भी उसे आवाज लगाया था।
व्हाट्स एप्प पे अब दोनों ऑफलाइन थे।
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