"....देखिए! जन्म एक प्रवेश है।जीवन मे प्रवेश।और जीवन का कैनवास इतना बड़ा है कि प्रवेश के बाद अंत असंभव सा लगता है और जिस बिंदू पर जाकर कुछ नहीं बचता, लगता है कि अब बस कुछ शेष नहीं, तो दरअसल शेष तो अभी भी है पर वहीं मृत्यु से भेंट होती है। वहीं सबकुछ पीछे रह जाता है। और हम अपने आने के मकसद को उपलब्द होते है। यद्यपि जन्म मृत्यु तक पहुंचने की समानांतर ट्रैक है। एक बिंदू जन्म है और दूसरा मृत्यु। ताउम्र इन दो बिंदुओं के बीच एक तय दूरी बनी ही रहती है। भले ही दो ट्रैक इधर से उधर सर्पिला होता जाए।
फिर ताउम्र जिस चाह में हम लगे होते है, भागमभाग में होते है और जिसे पा लेने को हम अपनी उप्लब्दी मानते है, वह मात्र एक भ्रम ही तो होता है। सच्चाई से कुछ दूर पीछे का भ्रम। जबकि एक दिन हम सब कुछ खो देते है। तो हम सब ताउम्र कुछ न कुछ खोते रहते है, पाते कुछ नहीं है। और दरअसल जिसे हम पाना कहते है वह मात्र एक भ्रम होता है...."।
Photo - ACP |
टेबल के एक किनारे रखे लैम्प की रोशनी में टक-टक की आवाज अचानक से थम जाती है।लैपटॉप के की-पैड पर दौड़ता नायक का हाथ रुक जाता है जब उसकी नज़र सामने रखे डॉ. वाकणकर की तस्वीर पे जा टिकती है।हमेशा की तरह आज भी डॉ. वाकणकर गंभीर है।नायक डॉ. वाकणकर को किसी उपन्यास का हिस्सा भर नहीं मानता, वह उसे अपने आसपास ही दिखता है।और इससे पहले कि नायक और कुछ सोचता जाए डॉ. के बारे में, नायिका पीछे से आकर नायक के गले में हाथ फंसा लेती है। और नायक के कांधे पर अपना थोटी टिकाते हुए एकनजर लैपटॉप पर लिखे नायक के शब्दों पर दौराती है।फिर यूँ नजर फेरती हुई कहती है-
'ये क्या खोने-पाने जैसी बातें लिखते रहते हो? मुझपर क्यों नहीं लिखते कुछ?'
जवाब में नायक मुस्कुराता है।नायिका उसके घुंघराले बालों में उँगली फंसाती हुई फिर हट्ट करती है 'बताओ न! मुझपर कब लिखोगे तुम?'
नायक एकपल को ठहरता है। उसका ठहराव उसकी सांसो की गति मात्र भर से नहीं है। वह कहता है- "तुम पर लिखे जीवन का सार ही तो लिख रहा हूँ मोना!" और वह आगे टाइप करता है -
"....तो पाना एक भ्रम है।जबकि खोना ही सच्चाई है...."
[ डॉ. वाकणकर, उदय प्रकाश रचित कहानी "और अंत में एक प्रार्थना" के किरदार है ]
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