हर कोई भीड़ से दूर चला जाना चाहता है,
किसी ऐसी
जगह पे
जहाँ उसके होने की शर्त खत्म हो जाये।
कोई उससे न कहे
कि तुम ये हो और
तुम्हारी जिम्मेदारी यह है।
मनुष्य जाने-अनजाने
ऐसी ही जगह को
तलाश रहा होता है,
और जब कभी भी
वह अपनी भागदौड़ से समय निकाल पाता है
लग जाता है उस जगह की तलाश में
भटकता जाता है,
भटकता जाता है,
और फिर भी वह कोई ऐसी जगह नहीं ढूंढ़ पाता
जहाँ वह पूर्णता को महसूस कर सका हो
जहाँ उसे लगा हो कि
हाँ, मैं यहीं आना चाहता था।
इसलिए शुरुआती भटकाव
उसे और भटकने को उकसाता है।
आदमी के अंदर ही एक गहराई होती है
किसी कुएँ से भी गहरी गहराई
उसका भटकाव ही
उसे उसकी गहराई में उतारता जाता है
और भले ही अपनी भटकाव में
उसने पूर्णता का अनुभव न किया हो
पर वह मनुष्यता को उपलब्द होता जाता है।
किसी का भटकाव
सारी मनुष्यता के लिए
एक जरूरी फायदा है।।
मनुष्य को भटकते रहना चाहिए
ताकि, वह खुद को उपलब्द हो सके
ताकि, वह मनुष्यता को उपलब्द हो सके।।
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