....और फिर वह दौड़ता हुआ बाहर आया और बिना कुछ बोले टोपी मेरे हाथ में पकड़ा चला गया। अंदर से लौटते हुए मैं अपना टोपी मोनेस्ट्री में ही भूल आया था। जब मैंने मोनेस्ट्री में प्रवेश किया था, तब वहां एक बड़े से हॉल में प्रार्थना हो रही थी। मैं भी वहाँ बैठ गया। मेरे आसपास बहुत से कम उम्र के बच्चे थे। और सामने बुद्ध का एक बड़ा सा प्रतिमा। सभी एक साथ कुछ बोल रहे थे। बच्चों के सामने एक किताब भी थी। पाली भाषा में। कुछ भी समझ पाने के जद्दोजहद में दिमाग प्रश्नों से भरने लगा।
मसलन इन कम उम्र के बच्चों को धर्म की शिक्षा देना क्या सही है? इन बच्चों ने अपनी राह खुद ही क्यों नहीं ढूंढी? या क्या अब तमाम उम्र ये बच्चों उन्हीं सत्य को मानेंगे जिसे बुद्ध ने सत्य कहा, और क्या ये बच्चें तमाम उम्र बुद्ध के फॉलोवर मात्र बनकर रह जाएंगे?
दिमाग बहुत चंचल होता है, जहाँ जो कुछ देखता है सवाल खड़े करता है। बुद्ध ने भी कहा है प्रश्न करना जरूरी है। सवालों के तह से ही रास्ता खुलेगी। पर सवाल मन की शांति का है, प्रश्न मन को अशांत करता है। अंदर कौतूहल पैदा करता है।
फिर आगे? पता नहीं।
बोध गया के मुख्य बुद्ध मंदिर में पिपल का एक वृक्ष है। जब भी आप वहाँ जाएंगे, बहुत से बौद्ध भिक्षु वहां मँडराते रहते है। जैसे ही पिपल की एक भी पत्ती गिरती है, सब उस ओर दौड़ पड़ते है। जबकि उस पेड़ के सामने ही एक दूसरा पिपल का पेड़ भी है जो सुना पड़ा होता है। पूछने पर पता चला कि पहले वृक्ष के नीचे बुद्ध को मोक्ष मिला था। इसलिए वे इस वृक्ष की पत्तियाँ इकट्ठा करते है, जबकि दूसरे का नहीं।
इन सभी बौद्ध भिक्षुओं ने निश्चित ही बहुत सी शिक्षा ले रखी होगी। पर जिस वृक्ष के नीचे बुद्ध को मोक्ष मिला, उसी के नीचे उन्हें भी मिलेगा, यह मानना कितना जायज है, पता नहीं। लाखों श्रद्धालु बुद्ध की शिक्षा को समझने इस प्राचीन नगरी में आते है। किसी के लिए मात्र यह खुद की खोज तक पहुंचने का एक रास्ता है तो किसी के लिए बुद्ध की राह को ही अपना लेना मात्र एक विकल्प। जबकि बुद्ध ने भी कहा है “अप्प दीपो भव:”
तो कौन किस तरीके से खुद की गहराई में जल रहे दीपक की ताप को महसूस करेगा, इस पर टिप्पणी नहीं किया जा सकता। सबका अपना-अपना तरीका होगा। फिर भी मस्तिष्क सबकुछ को देखते महसूस करते हुए प्रश्न खड़े करता है। और क्या पता एक नया रास्ता यहीं से निकल आये।
|| बोध गया, बिहार ||
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