भाग : 1
उन्होंने मुझे तीसरे फ्लोर का कमरा दिखाया और उत्साहित होकर बोले, यहाँ से पूरा पहाड़ दिखता है। मैं बाहर खड़ा पहाड़ों की ओर देखता रहा। अच्छा लग रहा था, पर मैं जानता था कि होटल का लोकेशन सही है इसलिए चार्ज भी ज्यादा होगा।परंतु फिर भी मैंने एक कोशिश की और उनकी ओर मुड़ते हुए बोला "देखिए, मैं स्टूडेंट हूँ और निश्चित ही जितना आप बताएंगे उतना मैं पे नहीं कर पाऊँगा। मैं बस हज़ार तक दे सकता हूँ।"
मुझे लगता है कि स्टूडेंट्स होने पर कहीं भी डिस्काउंट पाया जा सकता है। जब आप कहते है स्टूडेंट है तो सामने वाला थोड़ा उदार हो जाता है। उन्होंने मेरी ओर देखा और पूछा "कितने दिन रहेंगे?"
मैंने कहा "पता नहीं! पर आज और कल तो हूँ ही।"
थोड़ी देर मेरी ओर देखने के बाद उन्होंने सहमती में सर हिला दिया।
ड्रैगन गेस्ट हाउस के बाहर कॉफी शॉप पे बैठकर मैंने ऑनलाइन घंटो माथा मारा था पर प्राइस और जगह के हिसाब से कोई भी होटल या होम स्टे जंचा नहीं फिर कॉफी वाले के पास ही बैग छोड़कर होटल या होम स्टे ढूंढ़ने निकल गया था। अब तक देखे सभी होटलों में यह शानदार था।
सुबह लगातार बस के घुमावदार टर्न लेने से नींद खुल गयी थी। समय देखा, सुबह के आठ बज रहे थे। संकरी सड़क और ढ़ेर सारी गाड़ियां होने के कारण बस बहुत धीरे चल रही थी। अचानक से बदले मौषम के कारण आंनद भी आ रहा था और थोड़ी ठंड भी लग रही थी। और ऐसा लग रहा था बस लगभग मनाली पहुंचने ही वाली है।
मनाली प्राइवेट बस स्टैंड के बगल से ही एक नदी बहती है जैसे पारो (भूटान) एयरपोर्ट के बगल से एक खूबसूरत नदी गुजरती है। पहाड़ों की सुंदरता नदी से ही बनी हुई है। मेरा मन हुआ कि मैं वहीं थोड़ी देर नदी को देखता रहूं पर हल्की बारिश के कारण बस से उतरते ही मैंने ओल्ड मनाली के लिए ऑटो ले लिया।
न्यू मनाली की अपेक्षा ओल्ड मनाली में ज्यादा मन रमता है। वहां भीड़भाड़ कम होने के कारण पहाड़ों से अपनेपन का भी एहसास होता है, साथ ही शाम में जब निकलो तो कुछ दिलचस्प दोस्त भी मिल जाते है। ज्यदातर वर्ल्ड ट्रेवलर।
देर शाम तक ओल्ड मनाली की ही गालियां नापता रहा। इधर से उधर। बेवजह कभी इस दुकान से उस दुकान। तो कभी लाइव म्यूजिक कन्सर्ट वाले रेस्टोरेंट में।
और जब सुबह उठा तो देखा, पूरा पहाड़ सूरज की रोशनी में चमक रहा है। कुछ देर यूँ ही पहाड़ो को देखता रहा, दूसरी ओर दूर एक वाटर फॉल भी दिख रहा था। मुझे लग रहा था एकसाथ पहाड़ की हज़ार आंखें भी मेरी ओर देख रही है और कुछ कह रही है, जिसे मैं इतनी जल्दी नहीं समझ पा रहा था, मुझे पहाड़ों की भाषा सीखनी होगी।
फ्रेश होकर मैं निकल गया न्यू मनाली की ओर। ओल्ड मनाली से न्यू मनाली की सड़क गाड़ियों से भरी हुई थी और वे सभी चलने के बजाए ससर रही थी। न जाने कितने लोग रोज यहाँ आते है। फिर सड़क से जाने के बजाए ब्रिज के पार पैदल नेचर पार्क से होकर गुजरना ज्यादा दिलचस्प है। नेचर पार्क में एंट्री के लिए प्रशाशन वालों ने लिख रखा है, बीस रुपये की टिकट पर वहां टिकट काटने के लिए कोई नहीं होता। पार्क से गुजरते हुए समूचे पार्क में लगे आकाश को छूता एक जैसा पेड़ बेहद सुंदर दिखता है। और पूरे पार्क में बगल से गुजरती मनास्लू नदी की आवाज किसी संगीत सी कानों में गूँजती रहती है। आगे जाने पर देखा कुछ लोग फ़िल्म सेट जैसा कुछ तैयार कर रहे है, पूछने पर पता चला किसी मलयालम फ़िल्म की शूटिंग होनी है।
बहुत देर तक माल रोड से होते हुए मैं न्यू मनाली की गलियों में घूमता रहा। बहुत भीड़ थी वहां। अंत मे आकर अमिगोज कैफ़े में बैठ गया। अमिगोज स्पैनिश वर्ड है। माल रोड चौक से नजदीक ही यह एक खूबसूरत कैफ़े है। कई लगे पोस्टकार्ड इसकी खूबसूरती को और बढ़ाती है। जिस वक्त मैं वहां पहुंचा, कुछ स्कूल की लड़कियां जो ट्रिप पे आयी थी, वहीं बैठी थी और उत्साहित होकर पहाड़ों के फोटोज़ व अपने इंस्टाग्राम फ्लॉवर्स के बारे में बात कर रही थी।
मैं कुछ देर तक बैठा रहा, अब भी आधा दिन शेष था। फिर घूमता फिरता मैं नेचर पार्क में हो आया और इस बार मनास्लू की आवाज मुझे अपनी ओर खींचने लगी। मैंने नीचे उतरने के लिए रास्ता देखा, पर कोई रेगुलर या सहज रास्ता नहीं दिखा। फिर मैंने झाड़ियों के सहारे उतरना शुरू किया, और जैसे तैसे अंततः नदी किनारे पहुंच गया। बियर की बोतल से लेकर बहुत से प्लास्टिक नदी किनारे पड़े हुए थे। फेकने वाले को यकीन रहा होगा कि मनास्लू सब अपने साथ लेकर चली जाएगी। उधर मनास्लू अपनी ही धुन में बह रही थी। उसकी धार को देखकर लगता था कि नदी एक लय में बहती है फिर लगा नहीं बेहद लापरवाही से बहती है। गौर से देखने पर लापरवाही में भी एक लय दिखती है।
पत्थर के सहारे मैं नदी के बीच मे पहुंचा और वही बैठ गया। कभी नदी की धार देखता रहता तो कभी कुछ लिखने लग जाता और इस तरह वहीं बैठे बैठे शाम हो गयी। फिर महसूस होने लगा कि एकसाथ ढलती शाम, नदी की आवाज और सूनापन सब मुझे डरा रहा है। और जब तक यह एहसास मेरे अंदर था मैं वहाँ से जाना नहीं चाहता था।
कुछ वक्त के बाद सबकुछ नॉर्मल हुआ और मैं नदी के किनारे चलता हुआ ऊपर चढ़ने का रास्ता ढूंढने लगा। कुछ दूर चलते रहने के बाद नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ना संभव नहीं था। फिर मुझे लगा यहीं कहीं जरूर रास्ता होगा। कुछ प्रयास से मैं फिर ऊपर नेचर पार्क में आ गया। भूख भी लग गयी थी सो कुछ खाने से पहले सोचा हिडिम्बा टेम्पल देख लिया जाए। वहां पहुंचने पर मंदिर के बाहर लंगर जैसा कुछ चल रहा था। मैंने वहीं खा लिया और फोटोग्राफी करते हुए देर शाम तक होटल लौट आया।
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