भाग : 3
जब बस सुंदरनगर तक पहुंची, तब तक मन मे बड़ी खलबली थी कि कहां आ गए, कहीं फिर मैदानों की ओर ही तो नहीं बढ़ रहे। मनाली से बस जब निकली थी और जब तक सड़क के साथ-साथ व्यास नदी का साथ था सफर दिलचस्प लग रहा था। परंतु जैसे ही मंडी होकर बस आगे सुंदरनगर की ओर बढ़ी, गर्मी और बढ़ गयी।और दूसरी ओर बस एकदम खचाखच भड़ी हुई भी थी।
शाम के तकरीबन पांच बजे से बस फिर पहाड़ों की ऊंचाई पर चढ़ने लगी और तब तक भीड़ भी कम हो गयी थी। धीरे-धीरे जब बस लगभग पहाड़ की चोटी पर दौड़ रही थी, तब उत्साहित मैं कभी खिड़की के इस तरफ से पहाड़ों व खाई को देखता तो कभी उस तरफ से। होता ये की कभी खिड़की के एक साइड पहाड़ सटा होता और दूसरी साइड खाई होती फिर कुछ देर बाद जब बस मुड़ती तो परले साइड वाली खिड़की से खाई दिखती और मेरे साइड वाले से पहाड़ सटा होता। और चूंकि बस में भीड़ नहीं थी, इसलिए एक तरफ से दूसरे तरफ आना-जाना और पहाड़ों का देखना सहज था।
देर शाम को बस Jhunginala में टी ब्रेक के लिए एक दुकान पर रुकी। बाद में जब मैं पे करने के लिए गया, तो दुकानदार ने पैसे लेने से यह कहते हुए मना कर दिया कि यह उनके तरफ से आगन्तुक को मुफ्त में था। तकरीबन शाम साढ़े सात में बस फिर से निकल पड़ी। चारो ओर अंधेरा था, और मैं आश्चर्य से भरा था कि ड्राइवर इतनी तेज गति में भी कैसे पहाड़ और खाई के बीच संतुलन बनाए हुए है। थोड़ी देर बाद मैं आगे जाकर बैठ गया। बस लगभग खाली थी और बाहर उतना ही दिख रहा था, जितना बस की लाइट में देखा जा सकता था। गाड़ी के अंदर 90 के दशक वाले गाने चल रहे थे और ड्राइवर मस्ती में बस को ऐसे दौड़ा रहा था जैसे बचपन में मैं साईकल चलाया करता था। न गिरने का भय और न ही किसी से टकराने का। कई बार ऐसा होता कि जैसे ही बस टर्न लेती, सामने से कोई गाड़ी आ जाती, ऐसे में भी ड्राइवर इतनी तेजी में सबकुछ संभाल लेता कि एकपल को लगता कि अब तो गए। जबकि ड्राइवर उतना ही कूल रहता जितना कि वह पहले था।
photo : #ACP |
रात के दस बजते बजते भूख भी लग गई थी और थोड़ी बहुत थकान भी महसूस हो रही थी फिर भी आंख एकदम विस्मय में खुला बाहर झाँक रहा था। और मैं पूरी तरह ड्राइवर को भी ऑब्जर्व कर रहा था। एकसाथ मैं आदमी और पहाड़ के बीच के संतुलन को भी समझने की कोशिश कर रहा था। मैं विस्मय में था कि आखिर पहाड़ की इस ऊंचाई पर आदमी ने सड़क बनाया कैसे होगा? सड़कें ज्यादा चौड़ी नहीं होती, इतनी भर की बस एक गाड़ी चल सके, और जब सामने से कोई अन्य गाड़ी आ जाती तो उनको पास देते देखना दिलचस्प होता। कई बार ड्राइवर सामने से आती बस को देख लेता और उसे पता होता कि कहां साइड देना है, फिर वह वहीं बस रोक देता और मिनटों सामने से आने वाली गाड़ी का इंतजार करता।
पहाड़ से आप बहुत कुछ सिखते है। जैसे जैसे आप पहाड़ों के भीतर चलते जाते है, आप समझ पाते है कि पहाड़ों में कोई शॉर्टकट नहीं होता, यहाँ जिस काम में जितना वक्त लगना है, उतना लगेगा ही। जीवन भी तो ठीक वैसे ही है।
फिर आप यह भी जान पाते है कि जहां कि एक बड़ी आबादी जैसे होगी, वहाँ की गवर्मेंट भी वैसी ही होगी। बीजेपी और कांग्रेस से कुछ फर्क नहीं पड़ता। हिमाचल में, जहां पहाड़ों पर एक भी घर है, वहां भी सड़क और बिजली पहुँचाई गयी है। वहां भी बसें जाती है और फिर हिमाचल में पूरी रात रात भर हिमाचल परिवहन की बसें चलती रहती है।
तकरीबन 12 बजे एक गांव में छोटे से दुकान के पास ड्राइवर ने डिन्नर के लिए गाड़ी रोका। अब तक मैं ड्राइवर की ड्राइविंग से इतना प्रभावित हो चुका था कि मैं उनसे बात करने को उत्साहित था। सो जब वे खा रहे थे, मैंने बातचीत शुरू किया "आप बहुत अच्छा ड्राइविंग करते है।"
जवाब में केवल वे मुस्कुराए और आगे कुछ मैंने पूछा भी तो उन्होंने बस यही कहा कि अब तो आदत हो गयी है चलाते चलाते।
जवाब में केवल वे मुस्कुराए और आगे कुछ मैंने पूछा भी तो उन्होंने बस यही कहा कि अब तो आदत हो गयी है चलाते चलाते।
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