भाग : 8
रोकोंगपिओ से निकलने के बाद बस बहुत कम देर के लिए पूह में रुकी। पहाड़ों के मध्य में बसा छोटा सा पूह दूर से बेहद खूबसूरत दिखता है। जब पूह में रुका था, पाया कि यहां से एकसाथ पहाड़ियों की चोटी की सुंदरता भी दिखती है और बगल के खाई में नीचे सतलज नदी की गहराई भी। बहुत ही छोटी और सुंदर जगह है पूह, जो किसी सपनों की नगरी सी लगती है। न बड़े-बड़े घर और न ही बड़ी बड़ी आकांक्षा। पूह तकरीबन दोपहर में पहुंचा था, और कुछ खा-पीकर आगे बढ़ आया।
इस दरमियां एक वृद्ध महिला के बगल में जा बैठा। बात करने पर पता चला उनका घर नोवा से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर दूर है और वह एक छोटी सी गाँव मे रहती है जहाँ बेहद सुंदर सेब का बागान है। उन्होंने मुझसे पूछा, मैं इधर कहाँ घूम रहा हूँ। एकपल को मैं जवाब के लिए तैयार नहीं था। मैंने कह दिया, बस यूं ही देश को देख समझ रहा हूँ। मेरे जवाब में वह मुस्कुराई और बोली, मैं बनारस गयी हूँ और हरिद्वार भी। फिर उन्होंने मेरे घर परिवार के बारे में पूछा। बात करने पर वह मेरी नानी जैसी लग रही थी, इसलिए उनसे बात करना किसी पुरानी किताब को पढ़ने जैसे लग रहा था।
Photo #ACP |
नोवा से कुछ पहले वह उतर गयी और उतरते हुए उन्होंने कहा, शाम को घर आने के लिए। नोवा पहुंचने के रास्ते मे ही ठंड बढ़ गयी थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि कुछेक ठंड के और कपड़े खरीदने होंगे। पर एक अच्छी बात ये होती थी कि सभी होटलों में या होम स्टे जहां भी करता वहां कम से कम एक रजाई या दो कम्बल उपलब्द होती। नोवा लगभग पहाड़ की ऊंचाई पे है, इसलिए भी शायद ठंड ज्यादा थी। जब बस वहां रुकी तो मैंने बाहर निकल कर पहाड़ों की ओर देखा, एकदम अद्भुत, सुंदर। पहाड़ो के ठीक पास सूरज और बर्फ पर पड़ती सूरज की रोशनी, आँख खुली की खुली रह जाए। और आँखों को जैसे उस ओर देखते हुए तसल्ली नहीं हो रही हो। इस दरमियां मैंने लगभग दो कप चाय पी ली, एक वजह तो ठंड थी, दूसरी पहाड़ों में लोग चाय बेहद टेस्टी बनाते है।
थोड़ी दूर पर कुछेक मिनट बाद एक बोलेरे आ कर रुका। दिल्ली का ही नंबर थी। थोड़ी देर में ही गाड़ी से गाने की तेज आवाज बाहर आने लगी। हिमालय में इतनी शांति थी, और कार का सब दरवाजा खुला था सो म्यूजिक इरिटेटिंग लग रहा था। कुछ लोग जहां भी जाते है अपनी शहरीपन को ढ़ो कर ले जाते है, वे कभी उससे मुक्त नहीं हो पाते।
अब चूंकि आगे एक ही डेस्टिनेशन शेष थी इसलिए बस वाला भी जल्दी में नहीं था। परंतु जो एक अच्छी बात हुई वो ये कि ड्राइवर और कंडक्टर से मेरी अच्छी जान पहचान हो गयी। इसका तत्कालीन लाभ ये हुआ कि मेरे कहने पर कंडक्टर ने अपना सीट मुझे दे दिया। चलती बस से हिमालय को कंडक्टर और ड्राइवर, इनके सीट से सबसे खूबसूरती से देखा जा सकता था। जब आप सामने और बगल, दोनों ओर ही देख सकते है।
ड्राइवर से मिले आईडिया के तौर पर चांगो में मुझे तुरन्त रूम मिल गयी। और इसके लिए मुझे केवल 400 रुपए पे करने थे। चूँकि चांगो पहाड़ों के नीचे है इसलिए वहां शाम का असर दिखने लगा था जबकि पहाड़ों पर अब भी धूप थी। मैंने तुरंत बैग रूम में पटका और जैकेट पहन कर चांगो गाँव की ओर निकल गया।
गाँव में, ऊपर चढ़ते हुए साथ में जो नदी थी उसमें पानी नहीं था। जगह जगह पर सेब के सुंदर बागान थे, और पौधों में फूल भी अब लग आये थे। लोगों से बात करने पर पता चला कि अक्टूबर में सेब निकल आता है और वह मौषम सबसे सुंदर और चहल पहल भरा होता है यहाँ। और ऊपर जाने पर प्राइमरी स्कूल के बगल में ही ऊंचाई पर एक बहुत पुरानी मंदिर मिली। ऊपर चढ़ने पर चांगो और बड़ा गाँव दिखता है। मंदिर को खोला, अंदर बुद्ध थे और भगवान को मैं पहचान नहीं सका। इतनी अन्धेरा थी, कि एक जलता हुआ दीपक प्रयाप्त नहीं था वहाँ। मैं बाहर निकल आया और तेजी से फिर नीचे उतरने लगा।
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