बहुत पुरानी घटना नहीं है। साल 2018 की कोई शाम थी। अक्टूबर का महीना था और मैं अपनी उत्तर-पूर्व भारत की महत्वकांक्षी यात्रा पे था। कमोबेस भारत भर में केवल यह कुछ प्रदेश ही ऐसे थे, जहाँ मैं अभी तक भ्रमण नहीं कर पाया था। इसलिए एक लम्बे वक़्त की तैयारी के साथ मैं निकला था और उन दिनों सिक्कीम में था। तभी किसी संध्या घर से जानकारी मिली थी कि नानी की तबियत बहुत ज़्यादा बिगड़ गयी है और उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया है।
मैं पूरी रात सोते-जागते नानी के बारे में ही सोचता रहा। बचपन से नानी यहाँ आता जाता था, पर कभी यह नहीं समझ पाया कि वह मुझे और मेरी माँ को ही नहीं बल्कि एकसाथ वह अपने सारे नातियों को इतना ज़्यादा स्नेह कैसे कर लेती है! जैसे ही मैं ननिहाल पहुँचता, नानी देखरेख में पूरा घर अपने माथे पे उठा लेती। वह अपनी बेटी तक को कुछ न करने देती। यह सब कभी-कभी इतना ज़्यादा हो जाता कि मैं विशेष टाइम लेकर ही नानी यहाँ जाना पसंद करता। वह एकसाथ मेरी और मेरी माँ, दोनों की माँ थी।
नानी जी |
मैंने आगे का ट्रिप कैंसिल कर दिया, और सरप्राइज़ली सीधा अगले दिन नानी को देखने हॉस्पिटल (सीतामढ़ी, बिहार) पहुँच गया। तब नानी कुछ बोल नहीं पायी पर मेरी ओर देखती रही थी। उनकी आँखों में मुझे अंतिम वक़्त पे देख लेने का संतोष जैसा था। मम्मी को भी अच्छा लगा था। अगले तीन दिन के बाद ही नानी जी चली गयी। उनका जाना मेरे से ज़्यादा मम्मी के लिए बड़ा सदमा था। वो कई दिनों तक रोती रही थी।
यह वह दौड़ था, जब मैं सबसे अधिक दिनों के लिए अपने फ़ैमली के साथ रुका था। और ऐसे में ही बाबा के साथ अधिक वक़्त बिताने को मौक़ा मिला। बाबा राजकीय विद्यालय के प्रधानाचार्य हुआ करते थे, और अब रिटायर होकर अपना वक़्त खेती से लेकर तमाम तरह की आध्यात्मिक समझ को पुख़्ता करने में लगा रहे थे। उनमें और मुझसे एक जो सबसे सामान्य बात थी वो हमदोनों का यात्री होना था। और वास्तव में मुझे यात्रा करने की प्रेरणा भी उन्हीं से मिली थी। वेतन के रूप में दादा जी को एक मोटी रक़म मिला करती, जिन्हें वो या तो ट्रेवल करने में या हम भाइयों को पढ़ाने में लगा देते। इस तरह उन्होंने देश का बहुत सारा भाग केवल किताबों से बच्चों को पढ़ाया ही नहीं था, बल्कि देश भर के भूगोल से लेकर जीवन तक की उन्हें अच्छी समझ थी जिस कारण हमेशा ही जिन गाँवों में भी वे शिक्षक बनकर पढ़ाने को गए, सबके चहेते बने रहे।
अपनी मोटी रक़म से उन्होंने जो एक और काम किया, वो थी ज़मीं कि ख़रीदारी। बाबा दो भाई थे, एक भाई मेहनती न होकर यूँ ही आराम पसंद था, जबकि बाबा शुरू से क्लियर रहे कि जबतक कुछ न कुछ कर रहे है तभी तक ज़िंदा है। बचपन से मैं उनको देखता आया हूँ, समय पे जग-जाते है। जाड़ा हो या बरसात, यूँ ही बैठे रहने के बजाय कुछ भी काम ढूँढ निकालते है और करने लग जाते। जब तक शिक्षक रहे, या तो पैदल या साइकल से स्कूल जाते रहे।
दादा जी |
बाबा के साथ वक़्त बिताते हुए मैं सोचता था कि जीवन की कैसी-कैसी परतें है। माँ बाप हमें पालते-पोसते है और पढ़ने लिखने को बाहर भेजते है। सबकुछ होता है, हम जॉब करने लग जाते है पर इनसबके बीच जो एक सामान्य सी घटना होती है वो यही न कि हम आगे निकल जाते है और मम्मी-पापा परिवार सब अकेले छूट जाते है। उनके सपने धूल खाने लगती है। जब बाबा से बात कर रहा था, तब उन्होंने बहुत ही निजी पलों में अपने सपनों के बारे में मुझसे बातें की थी। उनके कई सपनें थी, जिनको लेकर मुझे अभी भी बहुत मेहनत करनी थी, पर एक था जिसे शायद मैं लग-भिड़कर अभी पूरा करवा सकता था।
हम शुरू से ही गाँव में रहे। बाबा, मम्मी-पापा भाई सबको गाँव का जीवन ही पसंद था। पर गाँव से दूर सीतामढ़ी (सीता माईया की जन्म-भूमि) में नब्बे की दशक में ही बाबा ने एक प्लॉट ख़रीदा था, यह शहर में अपने कमाई से ख़रीदी गयी पूरे गाँव भर से पहली ज़मीन थी। इसलिए बाबा को इस प्लॉट से बहुत लगाव था। मौजूदा हालात में डेढ़ क़ठे का यह प्लॉट भले ही पर्याप्त न हो फिर भी उनकी बड़ी खवाईस थी कि इस ज़मीं पर ही घर बनाया जाए। आसपास सारे ज़मीं पर निर्माण हो चुके थे, और हमारा ज़मीं लवारिश जैसा पड़ा हुआ था।
बाबा की उम्र लगभग अस्सी जा चूँकि थी, वे अब भी स्वस्थ चल-फिर रहे है। यह उनके जीवन की कमाई है पर मैं उस दिन यही सोचता रहा कि क्यू न रुककर निर्माण कार्य करवा ही दिया जाए। जाते-जाते कम से कम उनको यह मलाल तो नहीं रहेगा कि ज़मीं ख़रीदा पर जीते जी उसपर घर नहीं बनवा पाए। मैंने फ़ैसला किया कि अगले कुछ महीनो तक शहर में घर तैयार न हो जाए तब तक घर पर ही रहूँगा। बाबा की जो सेविंग्स थी, उसके बल पर इतना बड़ा निर्माण सम्भव नहीं था। फिर हम बैंक गए और कुछ भाग-दौड़ के बाद हमें बाबा के नाम पे SBI में पेंसन लोन मिल गया।
निर्माण जोड़-शोर से शुरू हो गयी। रोज़-रोज़ बाबा को शहर न दौड़ना पड़े इसलिए एक बड़ा सा अमाउंट वे मुझे दे दिया करते। मैं पैसा बैग में रखता और लेबर से लेकर मिस्ट्री तक सबको बिंदास पैसे देता। उनको काम करता देख मैं सोचता इतना ज़्यादा काम करते है ये और शाम को बस इनको इतना कम पैसा मिलता है। लेबर को तीन सौ पच्चीस रुपए और मिस्ट्री को चार सौ पचास रुपए प्रति दिन के हिसाब से मिलते, यही रेट था। शुरू-शुरू में सब मुझे मालिक-मालिक बुलाया करते, यह भी मुझे अच्छा नहीं लगता था। फिर मैंने उनके साथ बैठना-उठना, सिगरेट-चाय पीना- पिलाना सब होने लगा। तब से मैं जेब में सिगरेट की डब्बी रखने लगा, वक़्त बे वक़्त उन्हें पिला देता, ऐडवाँस पैसे दे दिया करता। यही सब चलता रहा। जब इनबातों की ख़बर बाबा को या मम्मी को लगती तब वे कहते, मज़दूर के साथ इतनी नज़दीकी सही नहीं है पर जीवन की मेरी अपनी यात्रा थी जिसने मुझे सिखाया था सब बराबर ही तो है।
ख़ैर, मैं रोज़ शहर मोटरसाइकल से आता- और शाम को वापस घर लौट जाता। शहर में रुकने के हज़ार अवसर होने के बावजूद मुझे घर लौट जाना सबसे सही लगता। लगता थकने के बाद रात भर में ही इतनी इनर्जी मिल गयी है कि अगले दिन फिर से शहर जाकर काम में रमा जा सके। मैं अकेले सबकुछ देख रहा था, इतना बड़ा बड़ा डील कर रहा था। छड़, बालू, ईंट ये सब जीवन के अलग-अलग कैरेक्टर बन गए थे। उन्हीं दिनों की बात है जब मम्मी और छोटी बहन शहर साथ आए निर्माण कार्य देखने के लिए। तब छत ढलाई के लिए सेंटिग हो रही थी। काम बहुत जल्दी-जल्दी आगे बढ़ा था, सब ख़ुश थे। उस दिन मैंने सोचा कि क्यू न मम्मी के साथ शहर घूम आया जाए। इस ख़्याल से दोपहर लगभग तीन बजे मैं सबके साथ निकल गया। मम्मी ने कहा, मोटरसाइकल से ही चलते है पर मैंने कहा, मोटरसाइकल से कैसा घुमना हो सकेगा। यूँ ही टहलते हुए चलते है। मोटरसाइकल मैंने सामने वाले अंकल के कैम्पस में खड़ी कर दिया। अन्य सारे निर्माण के सामान भी उन्हीं के कैम्पस में रखे जाते थे, कैम्पस में एक गेट भी था। वो अंकल बाबा के दोस्त ही थे। यानी हमारे हिसाब से वो एक सुरक्षित जगह थी।
देर शाम को हम घूम-फिर कर लगभग साढ़े आठ बजे लौटे। मम्मी तब तक निर्माणाधीन घर देखने मोबाइल टॉर्च जला कर अंदर चली गयी, इधर मैं यूँ ही बाहर टहलता रहा। उस रात शहर में ही एक रिलेटिव के यहाँ रुकने का प्लान हो चुका था। जब वह बाहर आयी तब मैं अंकल केकैम्पस में गेट खोलकर मोटरसाइकल लाने गया। वहाँ मोटरसाइकल नहीं थी, मुझे लगा यहीं कहीं होगा पर अगले दस बारह मिंट बाद मुझे पूरी तरह अहसास हो पाया कि मोटरसाइकल चोरी कर ली गयी है। मैं हताश इधर-उधर मोटरसाइकल की खोज में भटकने लगा। एक-एक गली छानता हुआ रात के लगभग एग्यारह बजे नगर थाना में पहुँचा। वहाँ सन्नाटा थी। मैं थोड़ी देर तक बाहर ही रुका रहा, तभी थानाध्यक्ष अपनी गाड़ी से बाहर जाने को आये। उनके साथ वाले पुलिस ऑफ़िसर ने मुझे घूरा और बड़ी ही रूढ़ तरिक़े से वहाँ आने का कारण पूछा। मैंने कहा, “आपके पुलिस स्टेशन से दो किलोमीटर के अंदर से मेरी मोटरसाइकल चोरी हो गयी है।”
मैंने पाया, उनलोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है। उलटे उन्होंने कहा, “जाओ कल सुबह आना FIR हो जाएगा।”
मैंने कहा, “चोरी आज हुई है! (26 दिसम्बर)”
जवाब में थानाध्यक्ष बोले, “आज के ही डेट में कल FIR हो जाएगा। जाओ!”
मैं चला आया पर रात भर नींद आने के बजाय यही सोचता रहा कि क्या क्या कर सकते है। कुछ दोस्तों ने कॉल पे भारत में रहने के ज्ञान दिए कि “यहाँ चोरी हुई चीज़ नहीं मिलती। अब कुछ नहीं हो सकता।”
बाइक ग़ायब हो जाना अलग बात थी, नयी ख़रीद लेना बिल्कुल अलग बात। और यह भी नहीं झुठलाया जा सकता था कि बाइक अब हाथ-पैर हो गए थे। मैं सुबह पुलिस स्टेशन पहुँचा। थानाध्यक्ष के कमरे में प्रधानसेवक और पटेल की तस्वीर लगी थी। मैं कुछ देर तक उनसे बात करते हुए उनके कमरे को अब्ज़र्व करता रहा। लगभग पाँच अटैंपट के बाद उन्होंने आवेदन ले लिया और बोले बाद में आकर FIR की एक कॉपी ले जाना। वो पूरा दिन इसी गुण-धुन में बित गया कि क्या क्या हो सकता है।
फिर अगले दो दिन तक पुलिस स्टेशन दौड़ने के बाद एक कर्मचारी ने कहा, पाँच सौ रुपया दो तो सनहा की एक कॉपी मिल जाएगी। सनहा शायद FIR को ही बोलते थे। जब FIR लिखवाने आया था, तब थानाध्यक्ष बातचीत में कह रहे थे, “ आप भारत के भविष्य हो, ये सब होता रहता है। घबराओ नहीं।” और आज उन्हीं के थाना में बाइक चोरी होने की रपट लिखने के लिए भारत के भविष्य का फ़्यूचर तय हो रहा था। मैंने कहा, “वैसे भी अब बाइक मिलने से रहा और ऊपर से मैं आपको पाँच सौ रुपया दूँ।”
वह बोला “यह तो कम है। हज़ार रुपया तक लेते है।”
मैंने कहा, “ठीक है, लेते होंगे पर मैं नहीं दूँगा।”
मैं थाना से वापस चला आया। सोचा, थानाध्यक्ष आएँगे तो उनसे बात करूँगा पर जब भी जाता वे नहीं मिलते। और पैरवी के लिए मैं जिनको भी कॉल लगा रहा था सब यही कह रहे थे, पहले FIR हो तभी आगे किसी से बात की जा सकती है। अंततः मैं सिस्टम का हिस्सा हुआ और कुछ रुपए देकर मुझे FIR की एक कॉपी मिल गयी। पापा मेरे मनमौजी इंसान थे, राजद में अच्छी पहचान होने के बावजूद उन्होंने किसी से मदद नहीं माँगी। समय बितता गया, मैं दिमाग़ दौड़ाता रहा पर उधर निर्माण कार्य भी मुझे देखने थे तो इंसबके बीच पुलिस के यहाँ भी अपडेट पूछने जाता और निराशा ही हाथ लगती। इसी बीच एक और घटना हो गयी।
निर्माणाधीन मकान अब ढलाई की स्थिति में थी और मुझे बड़ी मात्रा में छड़, गिट्टी, बालू और सीमेंट लेने थे। बाबूजी के हस्तक्षेप से मैंने उनके एक परिचित दुकानदार से ये सामान लेना तय किया। और दुकानदार को 47000/- रुपए कैश के रूप में व त्रिपन हज़ार रुपए (53000/-) चेक के रूप ऐडवाँस दे दिए। यानी दुकानदार को मैंने एक लाख रुपए ऐडवाँस दिए पर जिस दिन दुकानदार ने तय किया था कि वह सामान गिराएगा उस दिन उसने सामान दरअसल गिराया नहीं। इससे मैं थोड़ा सा अपसेट हुआ। लगा कैसा बिज़नस-मैन है, ऐडवाँस पे ये हाल है। फिर मैंने उस दुकानदार से चेक वापस लेकर अपने बैग में रख लिया और जितना कैश दिया उतने की ही सामान लेकर बाक़ी का डील कैंसिल कर आया।
शहर में घर बनवाना बहुत मुश्किल होता है। यहाँ कोई सहयोग नहीं करता अपने घर के सामने सामान नहीं रखने देता, बात बे बात पे प्रॉब्लम खड़ी करता है। ये मेरी तरफ़ नहीं होना चाहिए तो वो। यही सब मेरा अनुभव रहा, पर मैं डंटा रहा। लोगों से कोर्डिनेट करता रहा। और इस तरह बहुत भागदौड़ के बाद अंततः सात जनवरी को छत की ढलाई हो गयी। ढलाई के बाद मैं बहुत ही रिलैक्स हुआ, लगा एक जर्नी कम्प्लीट हुई है। अक्टूबर से जनवरी तक में। इस दौरान मैं बहुत बार गिरते-पड़ते बहुत कुछ सिखता गया। ढलाई के कम से कम सात दिन बाद तक कोई काम नहीं हो सकती। इसलिए अब टाइम था कुछ आराम करने का। कई सालों बाद मैंने घर पर मकर सक्रांति बिताया। अच्छा लग रहा था।
दो दिन बाद यानी सत्रह जनवरी को हम फिर से सीतामढ़ी काम शुरू करवाने के ध्येय से पहुँचे। मैंने बाबा को बैंक पहुँचा दिया और उनसे यह कहकर कि आप पैसे निकाल लीजिए मैं किसी और काम के लिए चला गया। आधे घंटे बाद बाबा ने बताया कि अकाउंट से पैसे ग़ायब है। मैंने कहा, “ये कैसे हो सकता है। आप पासबुक अपडेट करवा लीजिए और प्लॉट पे लौट आइए।” मैंने सोचा, शाम को अच्छे से देखेंगे।
शाम को हम घर पहुँचे। मैं अपने कमरे में एक मित्र से फ़ोन पे बात कर रहा था तभी बाबा घबराए से मेरे कमरे में आए और बोले, देखो राहुलबा ने पैसा निकाल लिया है। उनका सीधा निशाना जिस तरफ़ था, एक पल को मेरा ध्यान भी उधर नहीं गया। मैं ध्यान से पासबुक देखता रहा। राहुल कुमार ने 53000/- रुपए चेक से 15 जनवरी को निकाल लिया था। कौन राहुल कुमार पता नहीं! पर बाबा का इशारा हमारे ठिकेदार का बेटा राहुल पर था जो वहाँ थोड़ा तेज़तर्रार कामचोर सा था।मेरा दिमाग़ तुरंत घुमा और मैंने अपना बैग चेक किया। ढलाई के बाद से यह पहला मौक़ा था जब मैं बैग में हाथ लगा रहा था। मैंने पाया बैग से वो साइन किया हुआ चेक और वो डायरी ग़ायब है जिसपर मैं ठिकेदार को दिए पैसों का हिसाब लिखा करता था। यानी अब तक ठिकेदार को दिए लगभग पैंसठ हज़ार रुपए का भी कोई सबूत नहीं। एक पल को मेरा माथा सुन्न हो गया। यह वही बैग था जिससे मैं सबकुछ डील करता था, और निनानवें प्रतिशत केस में बैग मेरे कंधे पे ही होता था। फिर यह कब हुआ कि किसी ने बैग से चेक और वो डायरी ग़ायब कर दिया। जबकि हमेशा बैग मेरे कंधे पे ही होता था। दूसरी ओर, मैं निर्माणाधीन मकान के अलावा कहीं बैग रखता ही नहीं था, बस एकाध बार कहीं प्लॉट पे ही बैग रख कर काम देखने या करने लग जाता था, जो वही एक परसेंट में था।
बाबा ने ताउम्र एक-एक पैसा जोड़ा था। और एकसाथ इतनी बड़ी रक़म का ग़ायब होना हमारे लिए बहुत बड़ी डकैती थी। बाबा बार-बार कहने लगे, तुम्हें वो चेक तब ही फ़ाड़ देने थे, जब तुम दुकानदार से वापस लिए। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, सिवाय इसके कि चेक वापस लेने पर उसे फाड़ दिया जाता है। मैंने एक लर्निंग के लिए आज बहुत बड़ी किमत चुकाई थी। बाबा को विश्वास दिला कर कि पैसे मिल जाएँगे मैं ख़ुद टूट रहा था कि मेरे कारण मोटरसाइकल भी गए और अब ये भी। रात भर मैं रोता रहा। बहुत रोया, सुबह तक मन हल्का हुआ कि चलो, फिर सिस्टम से अब लड़ना है।
सबसे पहले बैंक पहुँचा। मैनेजर छुट्टी पे थे। फिर सारा केस अकाउंटेंट को बताया और उनसे पूछा कि, आप मुझे उस व्यक्ति का कोई पहचान पत्र दीजिए जो उससे लिया गया हो क्यूँकि पचास हज़ार से ऊपर की निकासी हुई है। वो बिना सिरियस हुए बोले, “आपका चेक था, आपका साइन था, हमने पैसा दे दिया। अब हम कुछ नहीं कर सकते।” अगले दस दिन तक मैं बैंक दौड़ता रहा, और इस पूरे दौड़ान मैनेजर छुट्टी पे ही रहे। बैंक सहयोग कर नहीं रहा था। मैनेजर छुट्टी पे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था। सारी ऊर्जा कुछ बैंकर दोस्तों से बातचीत करने के साथ ही internet पर बैंकों के नियम पढ़ने में लग जा रहे थे। मैंने कई जगहों पे RTI डाला। जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं आया।
फ़ेसबुक पर सीतामढ़ी नाम से एक पेज है। लगभग साठ हज़ार लोग फ़ॉलो करते है। मैंने उन्हें सहयोग के लिए लिखा, उन्होंने मैसेज देख लिया, पर कोई जवाब नहीं दिया। दिन भर में इस पेज से एक भी क्रिटिकल पोस्ट नहीं आते। जबकि DM रंजित जी के प्रमोशन में ये लोग हज़ार पोस्ट डालते है, जैसे DM डियम ना होकर कोई मौडल हो।
फ़ेसबुक पर सीतामढ़ी नाम से एक पेज है। लगभग साठ हज़ार लोग फ़ॉलो करते है। मैंने उन्हें सहयोग के लिए लिखा, उन्होंने मैसेज देख लिया, पर कोई जवाब नहीं दिया। दिन भर में इस पेज से एक भी क्रिटिकल पोस्ट नहीं आते। जबकि DM रंजित जी के प्रमोशन में ये लोग हज़ार पोस्ट डालते है, जैसे DM डियम ना होकर कोई मौडल हो।
मेरा चेक था, मेरे साइन थे फिर भी इतनी बड़ी रक़म बिना कोई ID लिए कैसे दी जा सकती थी? मेरे दिमाग़ में बार बार यही आ रहा था जबकि ख़ुद मैं उस बैंक में कइयों बार गया था और मुझसे चेक के पीछे पैन नम्बर लिखवाए गए थे। फिर?
एक पल को लग रहा था पैसे मिल जाएँगे फिर लगता पता नहीं क्या होगा। बाबा को जब भी देखता, सिस्टम से लड़ने की ताक़त बढ़ जाती। पुलिस के पास जा रहा था। कभी थनाध्यक्ष होते ही नहीं, तो कभी होते कहते शाम को आओ। मैं फरस्ट्रेट हो रहा था। और फिर SP से मिलने चला गया। उनके गार्ड ने रोक दिया, बोले ऐसे नहीं मिल सकते। मैंने सारी बातें बताई, उसने जाने दिया। अंदर SP तो नहीं मिले, एक व्यक्ति ने रोक लिया और उसने थनाध्यक्ष को कॉल किया कि कोई दिल्ली यूनिवर्सिटी वाला लड़का कम्प्लेन लेकर आया है, थनाध्यक्ष ने कहा, उसे यहाँ भेज दो। उसने मुझे कहा जाओ, अब तुम्हारा काम हो जाएगा। मैं लौट आया, दौड़ता रहा। अगले दिन। दूसरे दिन, फिर तीसरे दिन। अंततः थनाध्यक्ष ने बात सुनी, और मुझसे ही बोले आपही बताइए किस पे केस दर्ज करें। मैं समझ गया कि कैसे लोग भरे पड़े है। अब सीधा-सीधा कुछ होने वाला नहीं था। एक ही रास्ता था। जिस तरह के फ़्रस्टेशन मेरे अंदर है या तो मैं हथियार उठा लूँ या सबकुछ नॉर्मल मानकर भूल जाऊँ। लग रहा है सारी परिस्थिति ही ऐसी बन रही है कि कोई मुझसे कुछ करवाना चाह रहा हो। बाबा को देखता हूँ, उनकी मेहनत मुझे याद आती है। मैं सोच रहा हूँ, कोई बंदूके क्या ऐसी ही परिस्थिति में उठाता होगा? और मैं !!
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