ये बातचीत हाल ही में thegirl_film के लिए हुए तीन दिवसीय प्रोग्राम "गोंतरी" से ली गयी है जब आर्यन अपनी बात रखने खजूराहों गए थे. कार्यक्रम का आयोजन सुहानियो के प्रयास से हुआ था जिसमें देश के अलग अलग हिस्सों से लगभग पंद्रह से ज़्यादा लोगों ने भाग लिया. बातचीत का यह हिस्सा सेसन में बताए गए आर्यन के अनुभव व बाद के उनसे कुछ ज़रूरी सवाल जवाब पर आधारित है और पूरी तरह व्यक्तिगत है.
आर्यन, आपने कहा कि आपने अपनी जीवन में केवल मैकलोडगंज की यात्रा की जो टूरीस्ट स्पॉट थी. इसके बाद आप कभी ऐसी जगहों पे नहीं गए. तो ऐसी जगहों से आपका क्या मतलब है?
मैंने अपना एक लम्बा वक़्त दिल्ली में रहते हुए आर्ट के अलग अलग माध्यम को समझने में लगाया था और जब मेरे अंदर यात्रा करने की इक्छा जगी तो ऐसा था कि मैं यात्रा अपनी तरह की आर्ट को समझने के लिए करना चाहता था. वो कुछ था जिसके लिए मुझे एक माध्यम या कहें कि आवाज़ की ज़रूरत थी. और कई तरह के आर्ट फ़ेस्ट में घूमते जाते हुए मानसिक तौर पर मैं बहुत यात्रा कर चुका था पर जब मैंने शारीरिक तौर पर यात्रा शुरू किया तो संयोग से दोस्तों के साथ मैकलोडगंज ही पहुँचा. वहाँ इतनी भीड़भाड़ थी कि मुझे मज़ा नहीं आया. फिर वहाँ रहना और खाना पीना भी महँगा था इसलिए मेरे मन में ख़्याल आया कि मैं भीड़भाड़ वाली जगहों पे नहीं जाऊँगा.
तो क्या महज़ भीड़भाड़ ही मुद्दा था?
नहीं, भीड़भाड़ या यूँ कहें कि जहाँ टूरिस्ट ज़्यादा पहुँचते है वहाँ चीज़ें बड़ी खोखली हो जाती है. हमारी संस्कृति दरअसल इतनी खोखली भी नहीं है. शहरों में रहते हुए आपका विश्वास इंसानियत से डगमगाने लगता है, आपको लगता है लोग कितने बुरे है, कितने स्वार्थी है. कोई आपके बग़ल से जोड़ का हॉर्न बजाते हुए निकल जाता है और आप ग़ुस्से से उसे देखते रह जाते है तो मेरा मानना है कि कोई जगह जब टूरिस्ट आकर्षण जैसा बनता है तो वहाँ की मूलता नष्ट होने लगती है. शहर के लोग वहाँ आते है और अपनी पहचान के साथ आते है जिसे जाते हुए वे वहीं छोड़ जाते है. लोग अपनी जगह अपनी गंदगी छोड़कर यात्रा नहीं करते. वे शहर से दूर शहरी बनकर ही जाते है और चार दिन जश्न मना कर उन्हें लगता है कि उन्होंने ज़िंदगी जी लिया पर उनके फ़ुहर जश्न से किसी जगह की अपनी ख़ुशबू नष्ट हो जाती है, इसलिए मैं ऐसी जगह को अवोईड करता हूँ.
फ़ुहर जश्न?
हाँ मतलब! देखिए हम यात्रा क्यू करना चाहते है? ज़रा सोचिए आप. आप सोचिए कि यात्रा से आपका क्या मतलब है. जब मैंने यात्रा शुरू किया था तब मैं अपनी तरह के आर्ट की आवाज़ तो ढूँढ रहा था पर एक लम्बे वक़्त तक ऐसा रहा कि मैं चाहता उन जगहों की मेरी तस्विर हो जाए. या बाद में जब मैंने फ़टॉग्रफ़ी भी शुरू की तो यही था कि मैं उन सारी ख़ूबसूरत जगहों को क़ैद कर लेना चाहता था और ऐसा मैंने किया भी. पर इनसबके बीच हुआ ये कि मैं अपनी यात्रा में ख़ुद ही पीछे छूट गया. मेरा सारा फ़ोकस तस्वीरों पे रहने लगा ऐसे में आप ख़ुद को कैसे एक्सप्लोर कर पाएँगे. आपका सारा समय तो तस्विर लेने और उसके इंस्टा पोस्ट बनाने में चला जाएगा.
दो चीज़ें, आपने यहाँ इंस्टा की बात की जबकि आप ख़ुद भी एक लम्बे वक़्त तक यात्रा वृतांत लिखते रहे है?
हाँ! सही कह रहे. शुरू शुरू में मैं अपनी यात्रा के बारे में खुलकर लिखता था और उसका मुझे ख़ूब फ़ायदा भी हुआ. मुझे होस्ट और घुमाने वाले लोग बड़ी आसानी से मिलने लगे पर एक वक़्त के बाद यह सब बेमानी लगने लगा इसलिए लिखना और फ़ोटो शेयर करना सबकुछ मैंने बिल्कुल कम कर दिया. आज भी बहुत से लोग तो यात्रा इसलिए करते है क्यूँकि उन्हें अच्छी तस्वीरें चाहिए, ख़ूब फ़ोल्लोवर्स चाहिए.
बेमानी मतलब?
मतलब मुझे समझ आने लगा कि यात्रा मैं ख़ुद के लिए कर रहा हूँ फिर दुनिया को बताने की क्या ज़रूरत है.
पर आपने यह भी कहा कि आपने ऑफ़-बिट ट्रेवलिंग किया फिर जब आप बताएँगे नहीं तो लोग कैसे जानेगें?
और लोगों का जानना इतना ज़रूरी क्यू है. जब मैं शुरू शुरू में लिखता था तो दिमाग़ में यह भी होता कि चलो लोग इस जगह को जान लेंगे तो वह भी आ सकेंगे. पर फिर मुझे अहसास हुआ कि जिन जगहों पे भी ये लोग पहुँचे उसे इनलोगों ने तो बर्बाद कर दिया. शिमला, मनाली, लेह, लड्डाख ये सब की सब जगहें नष्ट हो चूँकि है. तो और कई जगहों के बारे में क्यू बताना, ये लोग वहाँ भी पहुँच कर चिप्स खाकर पन्नी वहीं फ़ेक आएँगे, बियर की बोतलें नदी में लुढ़का देंगे. और फिर इसलिए ही मुझे चिढ़ है टूरिस्टो से, जो यात्री होंगे खोजी होंगे, वे मेरी तरह अलग शांत जगहों को ढूँढ ही लेंगे. उन्हें बताने की ज़रूरत नहीं.
आपने दो वर्ड यूज़ किया, टूरिस्ट और यात्री?
हाँ, टूरिस्ट से मेरा मतलब ऐसे लोगों से है जो अपनी कम्फ़र्ट जोन में यात्रा करते है. इनके पास दो दिन का टाइम है और ये बाटी में एक पोस्ट लिखेंगे कि इन्हें बताया जाए कि दो दिन में किन किन साइट्स को कवर किया जा सकता है, वहाँ ये जाएँगे फ़ोटो खिंचा कर चले आएँगे. हो गयी यात्रा पर जो यात्री होगा उसका न तो जाने का जगह तय होगा और न ही वह कहाँ कहाँ घूमेगा यह तय होगा. ईवेन उसे यह तक पता नहीं होगा कि आज शाम को वह कहाँ ठहरने वाला है.
दो बातें. एक, BATI क्या है ये बताइए और दूसरा कि दूसरे तरह की यात्रा में तो ख़तरा भी है न?
हाँ, बिल्कुल ख़तरा है. कुछ भी तय नहीं है ऐसी यात्रा में इसलिए ही आप ख़ुद को जान पाते है, ख़ुद के अंदर की एनेर्जी का अहसास आपको होता है और आपको यह भी पता चलता है कि आप क्या-क्या कर सकते है. फिर अगर आपको ज़्यादा ख़तरा महसूस होता है तो फिर दिल्ली बैंगलोर और मुंबई ही आपके लिए सही जगह है.
और BATI?
बाटी फ़ेसबूक पर एक पॉप्युलर ट्रेवल ग्रूप है. मैं मानता हूँ यह शुरू तो हुआ था सही मक़सद से पर अब यह उतना मज़ेदार रह नहीं गया है. काम के पोस्ट कम आते है और यह ज़्यादा पूछे जाते है कि फलाने जगह को दो दिन में कैसे एक्सप्लोर करे, क्या क्या देखे और वहाँ तक कैसे पहुँचे.
हाँ! पर इसमें कुछ भी ग़लत तो नहीं?
बिल्कुल ग़लत नहीं है. पर सही यह है कि आप बाहर तो यात्रा पूरी कर लेंगे पर अंदर आप खोखले ही रह जाएँगे.
तो क्या यात्रा का मतलब केवल ख़ुद को जानना ही है?
मेरे लिए तो यही है.
फिर ख़ुद को जानना इतना महत्वपूर्ण क्यू है आख़िर?
इसलिए कि ख़ुद को जाने बग़ैर आप अपनी समाज और राष्ट्र से नहीं जुड़ पाएँगे.
थोड़ा और विस्तार में बताइए?
मेरा जन्म गाँव में हुआ पर एक लम्बा वक़्त बिता देने के बाद भी मुझे मेरा गाँव ज़्यादा समझ नहीं आया पर जब यात्राएँ हुई तब सेम गाँव को देखने का नज़रिया अचानक से बदल गया. जब छोटा था तब से पढ़ता मेरा भारत महान पर समझ मैं तब पाया जब मैंने यात्राएँ की. यह वक़्त था जब मैं अपनी देश की महानता को महसूस कर पाया. पढ़े हुए ज्ञान को आप कब तक ढोयेंगे.
अपनी देश की महानता को महसूस कर पाया?
हाँ, यात्रा में जब कुछ भी तय नहीं होता था तब मैं ट्रक वालों से लिफ़्ट ले लेता, वह जहाँ उतार देता वहाँ रहने खाने पिने की जगह ढूँढ लेता. एक बार तो मैं मनाली बस स्टॉप से यह कहते हुए काउंटर से टिकट माँग लिया कि सबसे लम्बी दूरी का कोई भी टिकट दे दो. उसने रामपुर का दे दिया. जब मैं रामपुर पहुँचा तब रात के तीन बज रहे थे, मैं कहाँ जाता सो कंडक्टर से बात किया और जब बस सुबह होते होते रिकोंगपीयो पहुँची तो वहाँ उतर गया. इसतरह यात्रा में बहुत से अनजान लोगों के साथ रहा उनसे मदद माँगा और आगे बढ़ता गया जैसे कोई अंगुली पकड़ के रास्ता दिखा रहा हो. तो यह सब ने मुझे अहसास कराया कि हमारा देश हमारी संस्कृति कितनी महान है.
जैसे कोई अंगुली पकड़ के रास्ता दिखा रहा हो, इसका क्या मतलब?
शुरुआत के दो तीन सालों के बाद यात्रा में ऐसा लगने लगा था कि अब कोई देख रहा है मेरी ख़्याल रख रहा है और शाम तक कहीं कोई न कोई ठिकाना दिला दे रहा है. अब ये कौन है मैं नहीं जानता पर है ज़रूर. मैं इसे थर्ड अंपायर कहता हूँ.
पर यह तो अंधविश्वास हुआ?
मेरी बातों को आपने अपनी चस्मे से देखा और तौला इसलिए आपको यह अंध विश्वास लगा जबकि मेरे लिए यह विश्वास है कि यात्रा में जब मेरा कोई नज़दीकी नहीं होता तब यह विश्वास होता है.
अपनी चस्मे से, मतलब?
मतलब यह कि हम जिन चीज़ों को नहीं जानते नहीं महसूस कर पाते उसे सबसे ज़्यादा क्रिटीसाइज़ करते है. और देखिए न अभी तो मॉडर्न फेनोमिना बन गया है कि जो हमारे समाज का पारम्परिक कहानियाँ और मानना रहा है उसे मिथ कहकर या अंधविश्वास कहकर पूरी तरह नकार देना.
और आपको क्या लगता है?
मुझे लगता है कि आपको अपने रूट की आओर लौटकर इन बातों को समझने की ज़रूरत है. मसलन मेरे एक दोस्त है. बहुत प्रोग्रेसिव है. उनका एक लम्बे वक़्त तक मानना रहा है कि रामायण महाभारत सब मिथ है बेकार की धार्मिक ग्रंथें है. एक बार वे मेरे साथ यात्रा कर रहे थे फिर मेरी उनसे इस बात पर लम्बी बातचीत हुई. पता चला, न कभी उनने महाभारत पढ़ा और न कभी रामायण पर कह रहे है कि सब मिथ है. जबकि उन्हें पता ही नहीं है कि इस समाज को रामायण महाभारत की कहानियाँ कैसे बाँध कर रखती है. तो एक तरह से यह अतिवादी नज़रिया है जो कि शुरू शुरू में मेरा भी था.
आपका भी था, मतलब?
हाँ, जब मैं दिल्ली आया तब मैं अल्ट्रा लेफ़्ट था. साहित्य से जुड़ाव के कारण मेरी विचारधारा वामपंथी होती गयी. मुझे सबकुछ में सुधार की ज़रूरत दिखने लगी, लगने लगा सिस्टम में कितना झोल है और सबकुछ बदलने की ज़रूरत है. तो ऐसे बदलाव की चाह में न जाने कितनी चाय पर चर्चाएँ हुई पर अंततः चीज़ें तब समझ आयी जब मैंने यात्रा शुरू किया.
और वो समझ क्या थी?
आपके जीवन में एक वक़्त आता है जब आप अपने सर्कल में घुल मिल जाते है, उन्हीं कुछ चंद लोगों से बातें करते है और उनके साथ ही वक़्त बिताते है. उनके बीच जो विचारधारा चल रही होती है वही आप भी या उसे थोड़ा बहुत हटकर आपकी भी विचारधारा होती जाती है. मैं दिल्ली में रहते हुए जिन माहौल में रहा वो कुछ ऐसी ही रही जिसमें सबसे बड़ी खलनायक सरकार होती. हरदम उन्हीं पे बात होता. सरकार ने ये किया सरकार ने वो किया. ऐसे में लगता था सही में दुनिया में बदलाव की ज़रूरत है, एक क्रांति की सख़्त ज़रूरत है. और ऐसी मनोदशा आपको निराश भी करती है. पर जब मैंने यात्रा शुरू की तो यह सब बदला.
बदला, जैसे?
जैसे कि मैंने कम से कम सरकार को गाली देना छोड़ दिया. क्यूँकि जब मैं हिमालय में यात्रा कर रहा था तब मैं बहुत अंदर अंदर तक गया, फिर देखकर आस्चर्य हुआ कि जिन गाँवों में एक घर है वहाँ तक भी सड़के बनी हुई है और जहाँ दस लोग है वहाँ तक भी बसें और बिजली पहुँच रही है तो फिर यहाँ तो सरकार अच्छी है. इसलिए मैं मानता हूँ कि सरकार कोई भी हो, बीजेपी या कोंग्रेस, वहाँ की प्रगति इसपे निर्भर करता है कि वहाँ के लोग कितने ईमानदार है.
तो आप मानते है कि जहाँ प्रगति नहीं हुई वहाँ के लोग भी ज़िम्मेदार है?
बिल्कुल मानता हूँ.
आप कह रहे थे कि आप अल्ट्रा लेफ़्ट थे, अब आप ख़ुद को कैसे देखते है?
अब मेरी विचारधारा अल्ट्रा लेफ़्ट या राइट से इतर की हो गयी है. अब मैं किसी भी विचारधारा में फँसने के बजाय ज़िंदगी जीने में ज़्यादा यक़ीन रखता हूँ. मुझे लगता है दस बहुदे लोग है तो दो अच्छे भी है और उन्हीं के साथ ज़मीं पर जो मैं बदलाव कर सकता हूँ करूँगा और ख़ुश रहूँगा. बस!
जैसा कि आपने कहा उससे लगता है बहुदे लोग ज़्यादा है?
हाँ, ऐसा है भी. ऐसे लोग ज़्यादा है जो आपको तमाम तरह की विचारधारा में फाँस लेना चाहते है क्यूँकि उनकी दुकान इसी से चल रही है. अब देखिए न कितने लोग है जो ज़मीं पर काम कर रहे है और कितने हज़ार लोग है जो सोशल मीडिया पे काम कर रहे है.
"उनकी दुकान इसी से चल रही है" इसको थोड़ा और स्पष्ट कीजिए!
आप जब फ़ेसबूक चलाते है तो आपको बहुत बार एक ख़ास ढंग का पोस्ट मिलता है. आपको लगता है सच में भारत में कितनी अशांति आ गयी है, यहाँ बोलने नहीं दिया जा रहा, साइलेंट एमर्जेंसी है. ये है वो है और यह सब मिलकर आपको अहसास कराता है कि सचमुच अब देश में कितनी हज़ार क़िस्म की समस्याएँ है और आपका मन बैठ जाता है पर जब आप यात्रा करते हहै तो आपको अहसास होता है देश में इतनी बुरी हालात भी नहीं है जितनी की सोशल मीडिया पे दिखती है. तो ये वही लोग है जो सोशल साइट्स पे ऐसा लिख लिख कर प्रगतिवादी होने का ढोंग करते है और अपनी दुकान चलाते है.
तो क्या आप मानते है कि सरकार की आलोचना नहीं की जानी चाहिए?
ऐसा तो मैंने नहीं कहा. आलोचना ज़रूरी है पर धरातल की समझ भी तो ज़रूरी है. सोशल साइट्स पे जो लोग है वो सीधा मोदी को गरियाते है, क्या उनने कभी अपने घर के बग़ल की समस्या पे लिखा, नहीं! पर वे सीधा ट्रम्प पे बात करेंगे क्यूँकि ऐसा करने से वे प्रगतिशील और कूल दिखते है.
तो आप यह कह रहे कि ज़मीं पे काम करने वाले लोग कम है?
बिल्कुल कम है . वे लोग ज़्यादा है जो बिना काम किए फ़ेसबूक पर अपनी काम की मार्केटिंग कर रहे है और जो सही में ज़मीं पर काम कर रहे है उसे हम आप बमुश्किल जान पाते है.
ख़ैर, आप हमें बताइए कि यात्रा की आपकी सबसे बड़ी कमाई क्या रही?
सबसे बड़ी कमाई तो ख़ुद तक पहुँचने की रही और ऐसे लोगों का मिलना जो यक़ीनन जीवन जी रहे है, दुनिया को सुंदर बनाने के लिए काम कर रहे है.
मतलब?
मतलब सच में ऐसे बहुत से लोग बचे हुए है जो बिना किसी स्वार्थ भाव के आपकी सपनों को अपना बना आपकी मदद कर साइड हो जाते है. फिर आपको लगता है दुनिया में अच्छाई बची हुई है. और सही कहिए तो ऐसे ही लोगों के कारण ही मनुष्यता नाम की कोई चीज़ है जिसपे आज भी हमलोग बात कर पाते है.
आप अकेले यात्रा करते है, कोई ख़ास वजह?
यात्रा मैं अपने लिए करता हूँ, इसलिए मैं हरेक तरह की लिमिटेशन को फाँदने की कोशिश में रहता हूँ. इसलिए जब आप अपने दोस्तों के साथ यात्रा करते है तो सामान्यतः वही बातें होती है, वही चीज़ें शेयर होती है और आप उन्हीं के बीच पूरे यात्रा में समय बिता देते है फिर आपके पास बचा क्या, चंद फ़ोटो और यादें. तो ऐसे में आपने सबकुछ तो किया पर उस जगह को एक्सप्लोर नहीं किया कोई नया दोस्त नहीं बनाया. और न ही अपनी लिमिट की पहचान हुई. इसलिए मैं यूज़ूअली दोस्तों के साथ यात्रा नहीं करता और करता भी हूँ तो उन चंद दोस्तों के साथ जिनके साथ यह अंडरस्टैंडिंग बनी हुई है कि कहाँ हम एक दूसरे का साथ छोड़ पकड़ सकते है, कहाँ एक दूसरे को पुश कर सकते है और कहाँ किन लिमिटेशन को दूर करने में हम एक दूसरे के लिए मददगार साबित हो सकते है. फिर ऐसी दोस्ती यारी फ़न के साथ आपके लिए एक लर्निंग स्पेस जैसा भी होता है.
तो क्या ऐसे दोस्त मिले है आपको?
हाँ, कई है. सब के सब यात्रा के दौरान ही मिले है.
तो क्या ऐसा है कि ऐसे लोग एकदूसरे के बीच ही सिखते है, समय बिताते है और जीवन एंजॉ कर निकल जाते है. मतलब एक कम्यून टाइप?
नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. ये लोग साथ है क्यूँकि इन्होंने एक दूसरों को ढूँढा है और यही इनकी मज़बूती भी है. एक वक़्त के बाद सामूहिक स्पेस को छोड़कर सब अपने अपने स्पेस में काम करने चले जाते है. यात्रा ने इन्हें सामाजिक दायित्व का भी अहसास तो कराया है जिसका इन्हें पालन करना है. किसी भी तरह का परमानेंट कम्यूनिटी का गठन समाजिकता नहीं.
जब आप thegirl के बारे में बता रहे थे तो आपने कहा कि कुछ लोग है जिन्हें पर्यावरण का ज्ञान नहीं पर उन्होंने पर्यावरण को बचा रखा है. इसका क्या मतलब?
ये बात आप भी जानते है कि सबसे ज़्यादा समझदार बौधिक लोग तो दिल्ली मुंबई और बैंगलोर में ही बैठे है. इनके बीच रोज़ किसी न किसी पर्यावरण से लेकर हज़ार तरह की मुद्दे पर बातचीत होती है फिर इन्हीं के बीच ट्रेफ़िक की समस्याएँ क्यूँ है, इन्हीं के बीच ऐयर पोल्यूशन भी है और ये यमुना भी नहीं बचा पाते फिर कहीं तो ये चूक रहे है. और पर्यावरण दिवस भी यही मनाते है. दूसरी आओर गाँव के लोग है जिन्होंने भले ही पर्यावरण की पोथी न पढ़ रखी हो पर्यावरण दिवस न मनाते हो पर ये जानते है अपनी नदी और जंगल को बचाना. ये किसी ख़ास दिन वृक्षा रोपण नहीं करते और ये बातें इनके दिनचर्या में शामिल है जो तमाम मिथॉलजीकल स्टोरी से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में आ जा रही जिसे अल्ट्रा मॉडर्न लोग मिथ या अंधविश्वास कहते है.
तो क्या thegirl फ़िल्म इन मुद्दों पे भी बात करती है?
हाँ, thegirl की स्टोरी में मिट्टी की मिठास है. यह गाँव के उस कल्चर को दिखाती है जहाँ बच्चें कैसे अपनी दिनचर्या में क्रीएटिव है कैसे वे चिड़ियों को पहचानते है उनका संवाद नदी जल जंगल से है और लोग मृत्यु तक का जशन मना रहे.
दो बातें, एक दिनचर्या में क्रीएटिव वाली और दूसरी मृत्यु तक का जशं! विस्तार से बताइए.
हाँ, जब मैंने thegirl बनाने का फ़ैसला किया तब मैं यात्रा से ऊबने लगा था एक लम्बे वक़्त से यात्रा करते हुए मेरे अंदर बहुत सी बातें इकट्ठा हो गयी थी, ऐसा भी था कि चीज़ें ब्लैक एंड वाइट में क्लीर दिख रही थी तब thegirl ड्राफ़्ट हुई.
मैं देखता था बच्चें जितना नहीं पढ़ रहे उससे ज़्यादा परेशान उनके पैरेंट्स है. बच्चों के प्राजेक्ट्स में वे लगे पड़े है दूसरी आओर क्रीएटिव कैसे हुआ जाए इसका उन्हें workshop भी दिया जा रहा है जबकि आप ग्रामीण इलाक़ों में या छोटे क़स्बों में देखेंगे कि क्रीएटिविटी बच्चों में तो है ही. वे न जाने कितने ऐसे अनोखे काम कर रहे. यानी बच्चों को खुला छोड़ने की ज़रूरत है.
और मृत्यु का जशं?
उत्तरी भारत में है कुछ लोग जो कबीर को मानते है. उनके लिए मृत्यु शोक का कोई बवंडर नहीं है बल्कि एक स्वाभाविक क्रिया है इसलिए कोई मरता है तो वे ढोल बाजे के साथ शरीर को छोड़ने जाते है. और इस वक़्त जो संगीत प्ले होता है वो वाक़ई आपको महसूस कराएगा कि मृत्यु का संगीत कैसा हो सकता है.
तो क्या यह सब हमें फ़िल्म में देखने को मिलेगी?
हाँ, ये सब thegirl का हिस्सा है.
और thegirl टाइटल कैसे चुना गया?
thegirl एक ग्रामीण दस साल की छोटी बच्ची की भी कहानी है इसलिए मैं चाहता था की नाम कुछ ऐसा हो जो फ़ोक टच लेकर आए पर अंत अंत तक thegirl की टीम ऐसा कोई नाम ढूँढ न सकी और उन्होंने यही नाम सुझाया इसलिए यह टाइटल ही रख दिया गया. हाँ, पर जब हम पोस्टर बना रहे थे तब चिंटू (मेरा छोटा भाई) मुझे असिस्ट कर रहे थे. और वे ही फ़िल्म का पोस्टर भी बना रहे थे. चार दिन के लगातार शूट के बाद यह तस्विर हम शूट कर पाए थे पर जब चिंटू ने फ़िल्म का पोस्टर तैयार कर मुझे दिखाया तो मैंने उनसे कहा टाइटल बनावटी लग रहा, बाक़ी सब ठीक है. फिर उन्होंने मेरे सामने ही अलग अलग फ़ोंट में मुझे टाइटल बदल कर दिखाया पर फिर भी बात कुछ बनी नहीं. तब यह आयडीअ आया कि क्यूँ न गाँव वालों से ही फ़िल्म का टाइटल डिज़ाइन करवाया जाए. हमने दो बच्चों को लगभग पंद्रह-पंद्रह ब्लैंक पेज दिए और कहा जाओ गाँव के अलग अलग लोगों से thegirl लिखवा कर और सज़वा कर ले आओ. इस तरह हमें तीस पेज मिले जिसपे thegirl अलग अलग लिखा हुआ था. उन्हीं में से एक हमने सेलेक्ट किया जो आज फ़िल्म के पोस्टर पर है.
ख़ूबसूरत! गाँव का फ़िल्म गाँव वालों के साथ.
बिल्कुल.
और यह नॉन-actors की क्या कहानी है?
thegirl की जो कहानी है उसमें कुछ भी फ़िक्सनल नहीं है, सबकुछ गाँव के किसी न किसी व्यक्ति के लाइफ़ से प्रभावित है और इसमें काम करने वाले भी सभी गाँव के लोग है जिन्हें ऐक्टिंग का कोई प्रोपर ट्रेनिंग नहीं दिया गया है. हाँ, बच्चों के दो workshop हुए थे.
आपको एक लाइन में thegirl की कहानी बतानी हो तो?
तो मैं कहूँगा यह फ़िल्म एक सस्टेनेबल लाइफ़ को दिखाता है.
और आपने फ़िल्माकन के लिए गाँव को ही क्यू चुना?
क्यूँकि गाँव की कहानी है और दूसरा कि गाँव में रहकर मैं थोड़ा अच्छे से जी पाता हूँ. जब हवा पानी साफ़ मिलता है तो लगता है अपने हिस्से का पर्यावरण मैंने नुक़सान नहीं किया.
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