एक खास ऊँचाई से पत्तियां शुरू होती हुई नारियल के इन पौधों की खूबसूरती देखते बनती है।और पत्तियों से छनकर आ रही चाँद की रोशनी में पूरा कालडी अद्भुत रौनक सी चमक रही है।चाँद अब भी फलक पे है जबकि सुबह की आहट दिखाई देने लगी है। नायक और नायिका दोनों एक-दूसरे की हाथों में उँगली फंसाये कालडी के बस्तियों से गुजरते हुए सुबह की आहट पर लोगों के दिनचर्या की सुगबुगाहट देख रहे है।उनका मन है कि अभी थोड़ी देर और यूँ ही बस्तियों में भटकते रहे।पर नायिका जल्दी से पेरियार के किनारे पहुंच दूर पहाड़ी की ओट से निकलता सूरज देखने को ज्यादा इक्छुक है। हल्की ठंड भी है।कालडी के पश्चिमी भाग से चलते हुए अब वे जंगल की ओर आ गए है।जो सीधा उन्हें पेरियार किनारे तक ले जाएंगी।पर पत्तियों पर टिके ओस की बूंद उनकी आहट से जैसे ही उनके ऊपर टपकती है वे और सिहर उठते है।वैसे भी जंगल के बीच वे ऐसे चल रहे है जैसे दो जिस्म एक में सिमट गए हो फिर भी ओस की बूंद से खुद को बचा पाना उनके लिए असंभव सा है। घने जंगल को वे नापते जा रहे है।पर जंगल है कि खत्म ही नहीं हो रही।नायिका चिंतित है कि कहीं इस बीच सूरज न निकल आये।वह नायक से कहती है...
चप्पा-चप्पा...मंजर-मंजर...