भाग - ३ ( इतने बड़े जहाँ में लोग अपना कितना सारा वक़्त छोटे से कमरे में बिता देते है।)
कुछ देर उसने पर्ची को घूरा, फिर मेरी ओर पर्ची बढ़ाते हुए बोली "तुमने कल ही पर्ची बनवाया था?”
मैंने कुछ नहीं बोला बस उसे फ़ॉलो करता हुआ उसके केबिन तक आ गया। एक बड़े से लम्बे-कम चौड़े रूम को दो असमान भागों में बाँटा गया था। बड़े हिस्सें में ट्रीटमेंट किए जाते जबकि छोटे वाले हिस्से में डॉक्टर के बैठने के लिए मेज़-कुर्सी रखी हुई थी जो गेट से लगा हुआ था। डॉक्टर कुर्सी पे बैठ गयी, फिर उसने एक रजिस्टर निकाला और कुछ देर तक देखती रही। तब तक मैं इधर-उधर देखने लगा, अंदर कोई और भी मरीज़ था, उसकी केवल आवाज़ मैं सुन पा रहा था। एक छोटे से दीवाल से कमरें को दो भागों में बाँटा गया था और जिधर से अंदर जाने का रास्ता था, डॉक्टर वहीं बैठी हुई थी। मेरी नज़र इधर-उधर होती हुई दीवालों पर लगे पोस्टरों पे टिक गयी। पोस्टरों में दाँतों के साफ़ करने के सही तरिके बताए गए थे। उन पोस्टरों को देख कर लगा कि मैं ऐसे ही तो दाँतों की सफ़ाई करता हूँ। तभी डॉक्टर की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी "सुनो, आज तुम्हारा हो नहीं पाएगा" इतना सुनते ही मेरे चेहरे के भाव बदल गए। "मैं तुम्हें अगले वीक का अप्पोईनमेंट दे देती हूँ।"
मेरा दिमाग़ तेज़ी से हिसाब-किताब करने लगा। आज बुधवार था, यानी अगर वो मंडे को भी बुलाती है तो भी चार दिनों बाद मुझे आना है। मेरा दाँत लगातार दर्द करने के बजाए, अचानक से दर्द करने लगता था और इतनी जोड़ों की दर्द होती कि पेन किलर का भी प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरी तरफ़ मैं पेन किलर लेने के पक्ष में भी नहीं था। मैं डॉक्टर की ओर देखा, और पूरी हिम्मत करके बोला "नहीं हो सकता का क्या मतलब। मैं क्लास छोड़ कर आया हूँ मैडम। ऊपर से दाँतों में दर्द लगातार हो रहे है।”
उसने तभी एक सवाल कर दिया "तुम्हारी दाँतों में अब भी दर्द है?"
"हाँ!" मैंने कहा।
"ठीक है, मैं पेन किलर लिख देती हूँ।”
"मैडम, मैं परसों से आजतक में दस पेन किलर खा चुका हूँ अब और नहीं खाना चाहता।”
अचानक से डॉक्टर का चेहरा बदल गया। मुझे तुरंत अहसास हुआ मुझे ऐसे नहीं बोलना चाहिए था। डॉक्टर एकटक मेरी ओर देख रही थी। न उसके चेहरे पर न तनाव था और न ही हँसी। एकदम सहज वह मेरी आओर देख रही थी। उसने सलवार-क़मीज़ पहना हुआ था और ऊपर से एक वाइट कोट लगा रखा था। देखने में वह कितनी प्यारी लग रही थी। मैंने कहा "सॉरी"
जवाब में वह कुछ बोली, मैं समझ नहीं पाया तभी उसने अंदर की आओर आवाज़ लगा दिया। "शिवानी, एक रूटकेनाल का केस है। तुम कर लोगी?"
मेरी उत्सुकता अंदर देखने को हुई।
"मैम, मेरे पास पहले से कई केस पेंडिग है।अंदर से आवाज़ आयी।"
"ठीक है, मैं अगले वीक आ जाऊँगा!” मेरे मुँह से यही निकला और मैं पीछे मुड़ता कि डॉक्टर ने कहा, “तुम दो मिनट यहाँ बैठ जाओ।” कहती हुई वह बाहर निकल गयी।
मैं बैठने को उस तरफ़ गया, यहाँ से अंदर की ओर देखा जा सकता था। एक लड़की जिसने वाइट कोट पहन रखा था, अपने ढके चेहरे से मरीज़ के मुँह में झाँक रही थी। निस्चित ही उसका नाम शिवानी होगा। मैंने कमरे में नज़र दौड़ाया, जो भी मशीन वहाँ लगे थे सब मेरी पहचान से परे थे। सामने की दीवार में एक खिड़की थी, खिड़की से उस पार मैं देखने लगा। सबसे पहले जिसने भी चार-दिवारी में खिड़की बनवाया होगा, क्या सोचा होगा उसने। क्या उसे लगा होगा कि निस्चित ही एकवक्त के बाद आदमी कमरे में रहता हुआ ऊब जाएगा, इसलिए उसने खिड़की बना दिए। अपने घर में बैठा आदमी मन ऊबने पर कमरे से बाहर जा सकता है पर जेल में बैठे क़ैदियों के लिए खिड़की एक वरदान है। मैं सोच रहा था जब डॉक्टर भी ऊब जाती होगी, वह खिड़की से बाहर देखने लगती होगी।
Photo : ACP |
बाहर की तुलना में डॉक्टर के केबिन में गर्मी कम थी। इसलिए वहाँ बैठा जा सकता था। मैंने अपने बैग से किताब निकाला, “the art of dramatic writing” पिछले कई दिनों से मैं इस किताब को पढ़ रहा था, जबकि आज तक यह ख़त्म नहीं हुई थी। लगातार कॉलेज और थिएटर में व्यस्तता के कारण मैं इसे पूरा नहीं कर पा रहा था। अरे, थिएटर से मुझे ध्यान आया कि कल भी मैं प्रक्तिस में नहीं गया था, आज पक्का डाँट पड़ने वाली थी। मैंने किताब में ध्यान लगाने की कोशिश की, तभी मेरा ध्यान गेट की ओर चला गया। “आप इधर आ जाइये!” डॉक्टर ने गेट खोलते ही कहा। डॉक्टर ने “आप” कहा था! नहीं, निस्चित ही मैंने ग़लत सुन लिया होगा। मैंने जल्दी से किताब बैग में रखा और बाहर निकल आया। डॉक्टर को फ़ॉलो करता हुआ कमरे नम्बर चार में आ गया। यह कमरा भी पहले जैसा ही था। हाँ, इस कमरे में खिड़की थोड़ी बड़ी थी, पर वे बंद थी। मैं डॉक्टर से पहले यही पूछना चाहता था कि वह खिड़की क्यूँ बंद है। मैं उनसे यह भी पूछना चाहता था कि क्या आपको यहाँ मन लग जाता है, इस छोटे से कमरे में। एक बड़े से संसार में आदमी अपना कितना सारा वक़्त किसी छोटे से कमरे में बिता देता है। मैं सोच ही रहा था की क्या बोलूँ, तभी डॉक्टर ने मुझे कहा “यहाँ बैठ जाइए!”
मैंने बैग एक किनारे रखा और जाकर बैठ गया, उसने हाथ में कुछ सफ़ेद सा पहनते हुए कहा, "पैर ऊपर करके आराम से बैठ जाइए।" इस बार मैंने सही ही सुना था। अचानक से डॉक्टर का बिहेवियर बदल सा गया था। मुझे कुछ अजीब सा लगा। वह कुर्सी आराम कुर्सी जैसी थी, जिस पर पीठ के बल लेटा जा सकता था। डॉक्टर ने मास्क लगाया और कुछ बड़ा सा इंस्ट्रमेंट्स लेकर मेरे नज़दीक आयी। मुझे डर भी लग रहा था। सबसे ज़्यादा डर तो इस बात की थी की कहीं दाँतों में दर्द न शुरू हो जाए। उसने मुझे मुँह खोलने को कहा। मैंने “आ” किया। उसने कहा “और खोलिए, जितना खोल सकते है।”
मैंने वैसा ही किया। डॉक्टर ने अपने हिसाब से ऊपर जल रहे लाइट को सेट किया, कुछ देर तक दाँतों को देखती रही फिर उठी और बड़े से अलमिरा के पास गयी। एक सिरिंच-निडिल निकाला और उसे भरा। मैं एकदम से डर गया, मेरा सीना तेज़ी से धड़कने लगा। कुछ कहते नहीं बन रहा था। बचपन में बुखार लगने पर जब प्रमोद चाचा सुई देने आते थे, मैं पहले ही घर से भाग जाता था। ऐसा न जाने कितनी बार हुआ कि मम्मी चाचा को बुला कर लायी और जब घर पहुँचती तो देखती मैं हूँ ही नहीं।
मैंने डॉक्टर की ओर डरी हुई नज़रों से देखने लगा, वह नज़दीक आने लगी। मुझे ऐसा महसूस होने लगा कि, कोई मुझे काटने के लिए आ रहा है। मैंने तेज़ी से आँख मींच लिए। जब कुछेक सेकेंड तक कुछ नहीं हुआ, तब मैंने आँख खोला, देखा डॉक्टर मुस्कुरा रही है। मैं केवल उसकी आँखों को देख पा रहा था। उसका पूरा चेहरा मास्क में छुपा हुआ था। चस्में की ग्लास से जैसे उसकी आँखें मेरी ओर मुस्कुरा रही थी। जैसे ही नज़रों को होश आया, डॉक्टर पीछे हटती हुई बोली, “आपको सुई से डर लगता है।”
मैंने कहा “बहुत!”
Photo : google |
“ठीक है! आप दो मिनट रुकिए।”
वह वापस गयी, सुई को रख दिया और एक स्विच को ऑन किया। स्विच ऑन करते ही कुछ तेज़ आवाज़ होने लगी। मैं आस्चर्य से इधर उधर देखने लगा। डॉक्टर मुझे हैरान देख, बोली “मैंने मोटर ऑन किया है। जब मैं आपसे थूकने को बोलूँ, आप इधर थूकना।” उसने मुझे बग़ल में इशारा करते हुए कहा। आराम कुर्सी के बग़ल में ही एक बेसिन जैसा कुछ बना था। डॉक्टर ने एक पाइप मुझे पकड़ाते हुए मुझे मुँह खोलने को कहा। मैंने वैसा ही किया। उसने तेज़ पानी का फुहार मेरी दाँतों में मारना शुरू किया, जब मुँह पानी से भर गया, उसने कहा “थूक दीजिए!” यही क्रम एक दो बार चला। फिर उसने मेरी दाँतों को मशीन से काटना शुरू किया, जैसे ही दाँतों का ऊपरी परत हटा, मुझे थोड़ा सा दर्द हुआ और यह कहने के बजाय मैंने अपनी आँखें मींच ली। स्कूल के दिनों में मेरा एक दोस्त हुआ करता था, वह कहता जब भी शरीर के एक हिस्से में दर्द हो, शरीर के दूसरे हिस्से में ख़ुद ही चींटी काटों। उसका ऐसा कहना था कि इससे बड़ी राहत मिलती है। मैंने वैसा ही किया और मेरा आँख मींचे देख डॉक्टर बोली “आपको दर्द हुआ?”
मेरी आँखें तुरंत खुल गयी, “हाँ! थोड़ा सा”
“आपको जब थोड़ा भी दर्द हो न! फिर आप हाथ ऊपर कर लेना। मैं समझ जाऊँगी।”
मेरे चेहरे पे थोड़े से रौनक़ आयी। मैंने सहमति में सिर हिला दिए। अगले दस मिनट तक और वह यूँ ही दाँतों के हिस्से को काटती रही, मुझे थोड़ा बहुत दर्द जैसा भी लगा फिर भी मैंने उससे नहीं कहा। जब उसने पूरा कर लिया, खिड़की की ओर वह जाती हुई बोली, “आप यहाँ मुँह साफ़ कर लीजिए!”
मैं मुँह साफ़ करके वापस आया तब तक डॉक्टर मेरे पर्चे पे कुछ-कुछ लिख रही थी। वापस आते ही मैंने उससे कहा “मैं दो बातें पूछना चाहता हूँ आपसे। पूछ लूँ?”
उसने रुकते हुए नज़र मेरी ओर घुमाया। शायद वह सीधा वो दो बातें सुनना चाहती थी, जबकि मैं चाहता था कि वह कहे, “पूछिए!”
जब मैंने कुछ नहीं कहा तब डॉक्टर फिर से लिखने लग गयी। मैं वहीं पास में बैठ गया और इधर-उधर कमरे में नज़र दौड़ाने लगा। अगले कुछेक सेकेंड में ही डॉक्टर ने कलम एक तरफ़ रखते हुए, अपने चेहरे से मास्क हटाया। गहुए रंग सा उसके चेहरे पे लगा हुआ चस्मा ऐसा लग रहा था जैसे चस्मे को विशेष उसके लिए ही डिज़ाइन किया गया हो। डॉक्टर ने पर्ची मेरी आओर बढ़ाते हुए कहा, “मैंने अप्पोईनमेंट दे दिया है, आप मंडे को आ जाइएगा। मेरे ख़्याल से दर्द नहीं होगा पर अगर आपको दर्द हो तो आप कभी भी हॉस्पिटल आ सकते है।” अचानक से मेरे अंदर एक ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। मैंने पर्ची उठाते हुए कहा “शुक्रिया!”
जवाब में डॉक्टर केवल मुस्कुराई। मैं वापस गेट की ओर बढ़ गया। वो दो प्रश्न मेरे अंदर ही रह गए जो मैं उससे पूछना चाहता था। एक, “वह मुझे सुई क्यूँ दे रही थी?” और दूसरा, “उसने अचानक से मुझे आप कहना क्यू शुरू कर दिया था?”
(यह एक लम्बी कहानी का छोटा सा हिस्सा है। पिछला भाग यहाँ पढ़ें...)
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