भाग - २ ( ज़्यादा सोने वाले लोग आलसी होते है )
डॉक्टर को लेकर मुझे यह भी लगता था कि मैं कहाँ कॉलेज का स्टूडेंट और वह डॉक्टर। और पता नहीं क्यूँ शुरू से मुझे ऐसा ही लगता रहा कि डॉक्टर से मैं क्या कहूँ, कैसे कहूँ। जहाँ प्रेम आया, अपने साथ बारिश की बूँद जैसे कितने छोटे-बड़े प्रश्नो को ले आता है। डॉक्टर चली गयी थी। पर जैसे उसका बहुत बड़ा हिस्सा मेरे अंदर और उस हॉस्पिटल में छूट गया था जहाँ वह छह महीने के लिए इंटर्न के रूप में आयी थी।
डॉक्टर को लेकर मुझे यह भी लगता था कि मैं कहाँ कॉलेज का स्टूडेंट और वह डॉक्टर। और पता नहीं क्यूँ शुरू से मुझे ऐसा ही लगता रहा कि डॉक्टर से मैं क्या कहूँ, कैसे कहूँ। जहाँ प्रेम आया, अपने साथ बारिश की बूँद जैसे कितने छोटे-बड़े प्रश्नो को ले आता है। डॉक्टर चली गयी थी। पर जैसे उसका बहुत बड़ा हिस्सा मेरे अंदर और उस हॉस्पिटल में छूट गया था जहाँ वह छह महीने के लिए इंटर्न के रूप में आयी थी।
तब मैं कॉलेज में तीसरे वर्ष का छात्र था। और दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस में स्टडी कर रहा था। नॉर्थ कैम्पस के बग़ल में ही मलकागंज एरिया में हिंदू राव हॉस्पिटल थी।। जहाँ मेरा आना-जाना सेकंड ईयर से तब शुरू हुआ जब एक बार अचानक ही क्लास के दौरान दाँत दर्द के कारण मुझे हिंदू राव जाना पड़ा था। हॉस्पिटल जाकर आपको अहसास होता है कि बीमार पड़ना कितनी बड़ी त्रासदी है जीवन की। ये कौन लोग है, जो हॉस्पिटल में भड़े-पड़े है। और ये कैसे बीमार पड़ गए।मेरे दाँतो में दर्द होना क्या महज़ एक दुर्घटना है या इसके पीछे की मेरी गौरज़िम्मेदारी है। जीवन बहुतों के लिए एक नशा है, नशे में भला किसको क्या सूझा है।
वहाँ जाकर मुझे पता चला था कि मेरे दाँतों में अंदर तक इंफ़ेक्सन है जिसे एक लम्बे ट्रीटमेंट से ही ठीक किया जा सकता है। फिर हिंदू राव आना जाना शुरू हो गया। मुझे अंदाज़ा हो गया था कि यह इंफ़ेकसन मुझे लम्बा हॉस्पिटल दौड़ाएगी। थोड़ा और पूछने पर पता चला था कि यह ट्रीटमेंट रूटकेनल कहलाती है। जब मैंने पूरे प्रॉसेस के बारे में जानना चाहा था तब एक डॉक्टर मैडम झल्ला गयी थी। एक तो मुझे उस डॉक्टर का मेरे दाँतों में टॉर्च जला-जला कर देखना पसंद नहीं था ऊपर से वह बड़ी खड़ूस लगती थी मुझे। जितना जानने की इक्च्छा से मैं उनसे कुछ पूछता था, उतने ही बेरुख़ी से वह जवाब देती थी। फिर भी न तो मेरी औक़ात थी कि मैं मैक्स हॉस्पिटल में जाकर अपना ट्रीटमेंट जल्दी से करवा लूँ और न ही इतना साहस की एम्स में जाकर भिड़ में खड़ा हो जाऊँ। कम से कम यहाँ भिड़ तो कम थी और हॉस्पिटल कॉलेज से भी नज़दीक था। बस एकमात्र जो प्रॉब्लम थी, वह यह कि पूरे डेंटल डिपार्टमेंट में लगभग लड़कियाँ ही थी। और यह मुझे क़तई पसंद नहीं था कि मेरी दाँतो को कोई लड़की देखे और उसका ट्रीटमेंट करें। पहले दिन उस खड़ूस ने मुझे पेन-किलर दे दिया था और बोला था, अगले दिन पर्ची बनवा कर आना।
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अगली सुबह जब मैं जगा, तब दस बज रहे थे। इस ख़्याल में कि सुबह हॉस्पिटल जाकर पर्ची बनवा लूँगा, मैं न तो रात को घर लौटा था और न ही यह तय किया था कि सुबह की क्लास पकड़ लूँगा। जागते ही जैसे तैसे मैं निशान्त के रूम से हॉस्पिटल की ओर भागा। निशान्त मेरा कलस्ससमेट ही था और वह एक नम्बर का आलसी था। उसको देख कर लगता था कि इसके बाद का आलसी मैं हूँ। जब मैं हॉस्पिटल पहुँचा, OPD पे पहले तक़रीबन डेढ़ किलोमीटर लम्बी लाइन लगी थी। मैं समझ गया कि अगर लाइन में रुका तब तो पक्का आज के सारे क्लास छूटेंगे। जबकि प्रोफ़ेसर व्यास आजकल काँट को पढ़ा रहे थे। अगर मैं लोगों को अपने क्लास के बारे में बताता तो क्या मैं लाइन में सबसे पहले खड़ा हो पाता? लोग तो इतने उदार थे नहीं कि वे मुझे लगने देते पर एक ट्राई तो किया जा सकता था। फिर मुझे लगा कि जब ट्राई ही करनी है तो सबसे आगे ही क्यूँ न की जाएँ, जहाँ से या तो काम बने या बिगड़े। लोगों से क्या बात करना।
इसी ख़्याल से मैंने एक बार आगे तक नज़र दौड़ाया। लोग लाइन में होते हुए भी तितर बितर लग रहे थे। अंदर से जो पर्ची बना रहा था उसका चेहरा मुझे नहीं दिखा, पर वो शीशे के अंदर के छोटे से होल से हाथ बढ़ाकर लोगों से दस के नोट ले रहा था और शायद कुछ पूछ रहा हो, इसलिए लोग झुककर उस छोटे से गोले से उसपार झाँकने की कोशिश करते। मैंने अपने पर्स से अपना कॉलेज आइडी निकाला। एक बार ग़ौर से देखने पर सिवाय फ़ोटो के सबकुछ इस बार भी मुझे सही लगा। मैं अक्सर आइडी पे अपनी फ़ोटो को तब और ग़ौर से देखने लग जाता हूँ जब किसी के सामने उसे देना होता है। आइडी पर फ़ोटो कभी भी सही नहीं आती। मुझे लगता ये आइडी बनाने वालों की सामूहिक साज़िश होती होगी। वह दिन भर एक जगह बैठा रहता होगा, हर-आने-जाने वालों की फ़ोटो लेता होगा और सबसे कहता होगा, ऐसे मुँह बनाओ तो वैसे। कितना बोरिंग फ़ील होता होगा उसे हर किसी से शक्ल बनवाना।
मैंने एकबार और आगे लाइन को देखा और अपना रास्ता तय किया। जैसे ही मेरे अंदर ग्रीन सिग्नल मिली, मैं तेज़ी से आगे बढ़ता चला गया। वे सभी आवाज़ें पीछे छूटने लगी जो मेरे आगे बढ़ते ही आने लगी थी, कि भाई भाई लाइन में लग जाओ ……ये……वो ………। मैं सीधा सबसे आगे जाकर रुका और शीशे से अपनी कॉलेज आइडी के साथ सौ के नोट आगे बढ़ा दिए। जिस वक़्त मैं आगे पहुँचा था, एक अंकल ने पहले से अपना आधार कार्ड दे रखा था इसलिए उन्होंने केवल मुझे एक अजीब सा रिएक्शन दिया, कुछ कहा नहीं। मैंने शीशे के उस पार देखा, पैंतीस-चालीस साल का आदमी उस तरफ़ बैठे पुराने से डेस्क्टॉप में आँख गड़ाए हुआ था। मुझे लगा वह मुझे पीछे जाने को कहेगा पर एकनज़र कॉलेज आइडी को देखने के बाद उसने पर्ची बनाना शुरू कर दिया। मुझे आस्चर्य और ग्लानि तब महसूस हुई जब उसने पर्ची के साथ बाक़ी के नब्बे रुपए वापस कर दिए। मुझे लगा था वह सौ रूपए रख लेगा। OPD वार्ड सेकेंड फ़्लोर पे था और डेंटल डिपार्टमेंट तीसरे फ़्लोर पर। एक दो सीढ़ी चढ़ने के बाद मूड पता नहीं क्या हुआ कि वापस हॉस्पिटल से बाहर निकल आया। मलकागंज चौक पे खड़ा-खड़ा सोचता रहा किधर जाऊँ। फिर कॉलेज न जाकर निशान्त की रूम की ओर बढ़ गया। रूम पहुँच कर देखा, निशान्त अब भी सो रहा है। मैंने पर्चे को एक ओर फेंका और बिस्तर पर पलर गया।
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