भाग - १ ( वर्तमान के हारे हुए लोग)
जो कुछ मैं लिखने जा रहा हूँ, यह एक तरह से मेरा आत्मवाचन है। इस बारे में आप क्या सोचेंगे कि कोई क्यूँ आत्मवचन करना चाहता है? पता नहीं! कुछ प्रश्नों का जवाब आपको एक प्रोसेस में मिलता है। लिखना मेरा वही प्रोसेस है। मैं लिख कर डॉक्टर को जानना चाहता हूँ। डॉक्टर जो कि एक हॉस्पिटल में इंटर्न है। मैं, जो कि उस हॉस्पिटल का मरीज़ हूँ। इससे ज़्यादा, कोई और परिचय नहीं हो सकती। और दुस्साहस करके एक क़दम और बढ़ा भी लिया जाए, तो यही कहा जा सकता है कि मैं डॉक्टर का मरीज़ हूँ। जो लिख कर ख़ुद के और उसके साथ के सम्बंध को महसूस करना चाहता हूँ और न जाने क्यूँ मुझे लगता है सबकुछ लिख देना, जैसे उसे फिर से पा लेने का मेरा मोह है। पर इतिहास ने तो कई कहानियों पे अपना वक़्त जाया किया है, जिन कहनियों में पाने की बातें थी। फिर? फिर यह जानते हुए भी कि अब मैं डॉक्टर को खो चुका हूँ, मैं खोने की कहानी क्यूँ लिख रहा हूँ। पता नहीं!
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हम प्रकृति को नहीं समझ पाते, जिस पल हमें लगता है कि हमें अगले पल की ख़बर है, अगले ही पल वह ग़लत साबित होती है। हम बहुत बौने है प्रकृति के सामने। जिस तरह आदमी को पहाड़ों के समकक्ष यह एहसास होता है कि वह कितना छोटा है, प्रकृति वही एहसास, वही लाचारगी हमें अलग-अलग घटनाओं से कराती है।
उस दिन जब डॉक्टर जा रही थी तब भी मुझे यही लगा कि अब हम नहीं मिल पाएँगे। हॉस्पिटल से निकलते हुए मेरा मायूस सा शक्ल उसकी शक्ल में घुल जाना चाहता था। मैं अंतिम दफ़े उसे इतनी सिद्धत से देख लेना चाहता था कि मेरा शक्ल उसकी तरह हो जाए। मैं ख़ुद को देखूँ और वह नज़र आए।
कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि ऐसा क्यूँ होता है कि एक पहचानी सी शक्ल हमारी दिनों-दुनिया में कुछ इस क़दर बस जाती है कि हमें उनके पास होने से सुकून मिलता है। बार-बार जैसे हम उसके पास लौट जाना चाहते है। पर कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के पास से कभी लौट भी पाया है क्या! वह तो हमेशा के लिए उसी के पास रह जाता है। जो कभी उसके पास से आ न सका हो, वह फिर कैसे लौटेगा भला।
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और फिर मैं कोई नया थोड़ी न हूँ! मेरा प्रश्न न जाने कितने पुराने प्रेमियों के प्रश्नों का दोहराव है। पर फिर भी प्रेम नया होता है। प्रश्न पुराने होते है, उत्तर नया होता है। अहसासें नयी होती है, दुनिया बदल सी जाती है जैसे। जबकि किसी और के लिए यही दुनिया उतनी ही उबाऊँ है, उतनी ही बेकार है। प्रेम जीवन का लाइफ़ लाइन है, इससे पहले कि दुनिया हमें अपने जैसा बना ले किसी से प्रेम करना ज़रूरी है, एक ऐसी फिसलन की आवश्यकता दुनिया के तमाम लोगों को है जो उसे प्रेम की नदी में बहा ले जाए। फिर दुनिया ऐसी न होगी, जैसी की अभी है।
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अंतिम दिन जब उसने दिल्ली छोड़ा था, मेरा मन था उससे मिलने का। इसके बावजूद मैं उससे मिलने नहीं गया, बल्कि मैं उसवक्त भी यही सोच रहा था कि मैं किस हक़ से उससे मिलने जाऊँ। एकदिन पहले ही तो उसे चाय पर साथ चलने को तो कहा था पर उसने मना कर दिया। प्रेम ही ऐसा है जो हमें न सुनने के बाद भी सामने से विश्वास डिगने नहीं देता। हमें लगता है सामने वाले की अपनी मजबूरी रही होगी। हम ख़ुद को नहीं देखते, सामने वाला ही रह जाता है। और यहीं प्रेम हमें मानवता के नज़दीक ले जाता है। सारा दर्शन भी तो यही कहता है कि "स्व" कुछ नहीं, महज़ एक अहंकार है। तो प्रेम में सबसे पहले हमारे “स्व” को चुनौती मिलती है। और बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी हम “स्व” को खोना पसंद करते है, ख़ुद को खोना पसंद करते है। प्रेम में अहंकार का सबसे सुंदर रूपांतरण होता है।
बाकी हिस्सा?
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