"आप thegirl को नहीं बना रहे, thegirl आपको बना रही है"
अभी हाल ही में मैं राँची में था. वहाँ भू-वैज्ञानिक व प्रोफेशर नीतीश प्रियदर्शी से मुलाक़ात के बाद मेरे उत्साहित बोल पे मेरे एक दोस्त ने कहा, "जैसे जैसे thegirl की जर्नी आगे बढ़ती जा रही है ऐसा जान पड़ता है आप thegirl को नहीं बना रहे, यह फ़िल्म आपको बना रही है"
वे सही कह रही थी. पिछले साल भर में thegirl के सिलसिले में जाने अनजाने मेरा बहुत लोगों से मिलना हुआ, और उनसे मिलना कुछ ऐसा ही रहा जैसे कि सबकुछ thegirl की भूमिका में ही पहले से तय थी.
thegirl की जर्नी लगभग डेढ़ साल पहले शुरू हुई थी. उन दिनों मैं सिक्किम में था. गंगटोक में दो दिन हुए थे. एक शाम मैं वहीं एक होटल से खाना खाकर निकल रहा था. होटल एमजी मार्केट में था और ठीक सामने ही एक बीयर बार. मैने सोचा अंदर हो लिया जाए. बार के गेट को मैंने जोड़ से धक्का दिया, जैसे ही गेट खुला, तेज़ आवाज़ में संगीत मेरे कानों में पड़ी. मैं अंदर जाकर इधर उधर देखता हुआ एक जगह बैठ गया, सामने कुछ मेरे उम्र के ही युवा लोग गिटार पे एक गाना गा रहे थे. मैं कुछ देर तक उन्हें देखता रहा. थोड़ी देर में जब उनलोगों ने अपना गाना ख़त्म किया, संयोग से वे सभी मेरे पास आकर ही बैठे. मुझे देख सहज ही हाय-हेल्लो हुई, सबने हाथ मिलाते हुए अपना अपना नाम बताया. एक बात यहाँ जो मैने नोटिस किया वो उनलोगों का हाथ मिलाने का तरिका. हाथ मिलाते हुए वे बड़ी ख़ूबसूरती से हाथों की उँगलियों को फँसा लेते थे और अंदर की आओर मोड़ लेते. मेरे अब तक के अनुभव में यह अनोखा तरिका था हाथ मिलाने का.
अपने बारे में बताते हुए मैने अपनी यात्राओं के अनुभव साझा किए और उनलोगों को अपना photography वेबसाइट दिखाया. जो लोग कम यात्रा कर पाते है वे अक्सर ज़्यादा यात्रा करने वाले लोगों से कनेक्ट करते है. बातें होती रही, और इसी दौरान उन्होंने मेरे लिए भी बीयर मँगवाया. मैने उनसे उनकी म्यूज़िक पे भी बातें की, सिक्किम में कैसे कैसे आर्ट उभर रहा है व सिक्किम के नाट्य विद्यालय इस सब पे भी. उनलोगों को लगा कि एक बाहर का बंदा सिक्किम के बारे में कैसे इतना जानता है, ख़ासकर उन्हें इस बात का बहुत अच्छा लगा, और इसी बीच उनमें से एक ने बीड बनाकर मेरी आओर बढ़ा दिया. क्राउड पूरी तरह नया था, मैने कहा मैं सिगरेट लेना पसंद करूँगा.
बातें होती रही. उनमें से एक बंदा जो मेरी ट्रैव्लिंग स्टोरी में ख़ूब रुचि ले रहा था, उसने मुझसे पूछा "आपका आगे का क्या प्लान है?"
मैने कहा, अब सोच रहा हूँ यहाँ से गोहाटी के लिए निकल जाऊँ.
इसपर उसने कहा, "आप ऊपर नहीं जाएँगे?"
"ऊपर जाना ज़्यादा एक्सपेंसिव है. प्राइवट टैक्सी लेना पड़ेगा. शेयर का कोई उपाय नहीं" मैने लगभग बीयर की की ख़ाली बोतल नीचे रखते हुए कहा. उसने एक और बीयर का इशारा काउंटर की आओर किया. मैने कहा, अब हो गया दोस्त. छोड़ दो.
"आप आराम से पियो. और आप चिंता न करो मैं आपको अपने टैक्सी से अपने गाँव ले चलूँगा. वहाँ आप मेरे घर कुछ दिन रुकना." मुझे लगा उसपर बीड का असर है शायद. बातों बातों में उसने बताया कि वह टैक्सी चलाता है, और उसे भी घूमना बहुत पसंद है, मुझे घूमाते हुए वह भी घूम लेगा.
रात के लगभग साढ़े नौ बज रहे थे, मैं जहाँ रुका था उसने कहा था नौ बजे तक आ जाने को वरना गेट बंद हो जाएगा. मुझे लगा अब लौट जाना चाहिए. लौटते हुए हमने नम्बर साझा किए और अन्य लोगों से भी फ़ेसबूक पर जुड़ा. बाहर जैसे ही निकला ठंडी हवा ने जैसे आक्रमण कर दिया हो. लौज लौटते हुए मैं सोच रहा था कि सिलीगुड़ी से आते हुए उस ड्राइवर का बताया ज्ञान कितना काम आया आज. अक्सर यात्राओं में मैं ड्राइवर के साथ बैठना पसंद करता हूँ, इससे कई लोकल बातें पता चल जाती है. सिलीगुड़ी से जब एक लम्बी गाड़ी में बैठा था तब ड्राइवर कोई लोकल गाना बजा रहा था फिर मेरी उससे इनसब पर बातें होने लगी थी.
लौज का दरवाज़ा बंद हो चुका था. थोड़ी मसक्कत के बाद मैं अंदर आ गया. गंगटोक में रहते हुए दो दिन हो गए थे, आज का पूरा दिन नीचे के एक गाँव उतरने और फिर ऊपर चढ़ने में बीत गया था. बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं सोच रहा था कि क्या कल वह आएगा, मैं सोच रहा था कि अगर वह आता है तो कुछेक दिन के लिए उसके गाँव निकल जाऊँगा फिर वहाँ से गोहाटी के लिए. पर मन में ऐसा भी था कि शायद वह नहीं आएगा क्यूँकि वह पी रहा था इसलिए शायद ऐसा कह गया.
सुबह मैं उठा. फ़्रेश होकर बाहर चाय पिने को आया. थोड़ी देर वहीं बैठे-बैठे विचारों के उधेर-बुन में लगा रहा. यात्रा करते हुए मुझे चार साल हो गए थे, इस बीच छह स्टेट को छोड़कर ज़्यादातर जगहों पर मैं जा चुका था पर यह पहली बार हो रहा था कि यात्रा में मेरा उस तरह का उत्साह नहीं बना हुआ था. कुछ अजीब सा फ़ीलिंग था. सिक्किम में रहना चाहता था, आगे जाना चाहता था. कुछ साफ़ साफ़ समझ नहीं आ रहा था. तभी उस दोस्त का कॉल आया. उसने बताया कि वह टैक्सी लेकर आ रहा है, मैने जवाब में कहा, ठीक है. चाय वाले को पैसा दिया. चाय अब भी वहाँ पाँच की ही थी. जहाँ चाय पाँच की मिलती है मुझे लगता है वहाँ आज भी लोग ईमानदार बने हुए है.
होटल आया कपड़े बैग में रखे. कैमरा सब पैक किया. पर अब भी मन अनमना सा था. मैं बिस्तर पर लेट गया. थोड़ी देर रुकी हुई पंखे की डंडी देखता रहा. मोबाइल निकालता फिर लॉक खोलकर लॉक लगा देता और नीचे रख देता. ऐसा लग रहा था जैसे मैं अब और यात्रा करने के मूड में नहीं हूँ. बीते कुछ वर्षों में बहुत कुछ ज़मीनी अनुभव हुए थे सब कुछ अंदर अंदर ही उबला रहा था जैसे. पर अब भी कुछ तय नहीं कर पा रहा था कि क्या किया जाए!
मैने मोबाइल निकाला, उस टैक्सी वाले दोस्त को कॉल किया और उससे कहा कि फिर कभी मिलते है. मेरा मूड नहीं है अभी ऊपर की आओर जाने का. सामान मैं पैक कर चुका था, थोड़ी देर में होटल से घूमता फिरता गंगटोक बस स्टॉप पे पहुँचा. संयोग से बस में सीट मिल गयी. आमतौर पर बस में सीट नहीं मिलती है, क्यूँकि टैक्सी के बजाय बस का भारा बहुत कम होता है.
बस में सफ़र करते हुए मैने गोहाटी के लिए ट्रेन में टिकट ले लिया. पर शाम होते होते जैसे जैसे बस सिलीगुड़ी के नज़दीक आती गयी मेरा मन और भारी होता गया. बस स्टॉप पे उतरते हुए भी रेलवे स्टेशन की आओर जाने का मूड नहीं था. सो काफ़ी देर तक बस स्टॉप पे ही बैठा रहा. लगभग घंटे भर बाद मैने एक बस सीतामढ़ी के लिए देखा. सीतामढ़ी मेरा होम टाउन है. मैने सोचा अब घर ही निकल चलते है. घर चलने के ख़याल से मेरा मन थोड़ा हल्का हुआ. लगा सारा मन यहीं तक आने को था जैसे. मुझे बस में एक सीट मिल गयी. रात भर की सफ़र थी, सुबह बस मधुबनी होते हुए सीतामढ़ी नौ बजे के आसपास जा खड़ी हुई.
मम्मी को कॉल करने पे पता चला मम्मी नानी के साथ हॉस्पिटल में है. नानी की उम्र लगभग तेहतर साल थी. वह बीते कुछ महीनों से बीमार चल रही थी. मैं सीधा हॉस्पिटल पहुँचा, सब एकदम ख़ुश. मम्मी को तो एकदम से लगा मैं आसमान से उतर आया हूँ. नानी कुछ बोल नहीं पायी, पर उनकी भी आँखें फैली हुई थी. वह अपनी जीवन की अंतिम हिस्सों में ही थी. तीन दिन बाद ही नानी का देहांत हो गया. मुझे संतोष हुआ कि अंतिम पलों में मैं उनके साथ रह पाया. वह मुझे और मेरी मम्मी दोनों को ऐसे डुलार करती थी जैसे हमदोनों ही उनके बच्चे हो.
नानी के जाने के बाद मैं घर आ गया. अपने गाँव में लगभग महीनों रहा. सबकुछ देखता सुनता रहा. लगा अबकी गाँव को जी रहा हूँ. पैदा होने भर से वह जगह आप जी नहीं लेते, ऐसे में भले वह जगह आपकी हो गयी हो पर ज़रूरी नहीं कि आप भी उस जगह के हो गए हो.
यह वह समय था जब मैने सबकुछ बहुत नज़दीक से अलग संवेदना के साथ देखा. गाँव की अपनी सुस्ती, चहल-पहल. नदी-खलिहान और जंगल. और इन सबके बीच सौकडों बच्चे आज भी उसी तरह स्कूल जा रहे, स्कूल से बंक मारकर आज भी चौरी में भाग जा रहे, पोखड में नहाना उनकी दिनचर्या है. फिर यहाँ से thegirl की कहानी का जन्म हुआ.
जब thegirl का idea मेरे दिमाग़ में आया तब ऐसा नहीं था कि कहानी का शुरू से लेकर अंत तक का प्लॉट सबकुछ तय हो गया था. पर एक चीज़ जो मैने तय किया था वो ये कि मैं इस फ़िल्म को बिना किसी लाग-लपेट के बनाऊँगा, गाँव के ही लोग काम करेंगे, और वे ही असिस्ट भी. फ़िल्म बनाने में यह मेरा दूसरा अटेम्पट होता इसलिए मैं टीम में लोगों के चुनाव को लेकर भी सतर्क रहना चाहता था. सतर्कता ऐसे कि जिनके साथ पहले काम किया है, उनको अप्रोच नहीं करूँगा.
इन दिनों मेरी एक दोस्त थी, दिल्ली में अमर-उजाला में पत्रकार थी. उनसे लम्बी लम्बी बातें होती इस फ़िल्म को लेकर. वह कुछ बताती मैं कुछ ऐंड करता. फिर संजय जी, स्लीनीयो, चिंटू, ताबिश, निशांत, सुभाष जी और कुलदीप ये वे लोग रहे जिनसे लगातार बातचीत होते होते यह प्रोजेक्ट अपना रूप लेती रही.
इन्हीं दिनों मैं टीम में कुछ लोगों की तलाश में दिल्ली आया. दिल्ली आकर लोगों की तलाश तेज़ी से निकल पड़ी. कई जगह मैसेज फ़ॉर्वर्ड हुआ, कई रेसपोंस भी आए. बहुतों ने पूछा आपने पहले क्या काम किया है, किसी ने कहा पचीस हज़ार में पूरा फ़िल्म शूट कर दूँगा तो किसी ने कहा तुम्हारे पास बजट तो है नहीं. पहले कुछ कमा लो, सेविंग बना लो. किसी ने कहा फ़िल्म बनाना है तो मुंबई जाओ, बिहार में कहीं कोई फ़िल्म बनाता है क्या!
मैने इस तरह के कई बोल सुने. पर मैं अपनी तलाश में लगा रहा, और आज कई लोग इतनी मज़बूती के साथ टीम में खड़े है कि उनके साथ से मुझे साहस मिलती है. ये ही वे लोग है जो thegirl की पिलर है, मज़बूती है.
पल्लव मित्रा - फ़िल्म बनाते हुए मुझे तीन ठोस लोग चाहिए था, एक एडिटर. दूसरा, सिनेमेटोग्राफर. और तीसरा, साउंड का कोई बंदा. साउंड के लिए जिनका नाम पहले से मेरे दिमाग़ में था वो पल्लव का ही था. पल्लव से मैं 2016 जुलाई में पहली बार मिला था. उस वक़्त पल्लव फ़िल्म स्कूल SRFTI में थे और मैं भूटान जाने के लिए कोलकाता में एक रात ठहरा था. अगली सुबह मैं और मेरे एक मित्र निशान्त फ़िल्म स्कूल घूमने के ख़्याल से SRFTI पहुँचे. पर अंदर जाने से गार्ड ने हमें यह कहते हुए रोक दिया कि जब तक कोई जानने वाला न हो आप अंदर नहीं जा सकते. मैने कहा, है न जानने वाला. गार्ड ने पूछा, कौन? मैने जवाब दिया विकास. जबकि कोई विकास से मेरी पहचान नहीं थी. गार्ड ने कहा विकास को फ़ोन लगाओ. और मैने फ़ोन लगाने का ऐक्टिंग किया. मैने गार्ड से कहा, अंदर जाने दीजिए, विकास का कॉल लग नहीं रहा. इस पर गार्ड कुछ सोचते हुए बोला, अरे हाँ! आज उसका शूट है वह उसमें बिज़ी होगा.
इस तरह एक बंदा साइकल पर बैठा हमारी इस पूरी बातचीत को सुन रहा था. वह समझ गया था कि ये लोग अंदर आना चाहते है पर किसी को जानते नहीं. वह फट से गार्ड के पास आया और बोला, मैं इनलोगों को जानता हूँ और उसने अपने नाम पर एंट्री करवा कर हमें अंदर ले गया. वह बंदा पल्लव ही था. उसने हमें विकास से भी मिलवाया और संयोग देखिए कि मैने और निशान्त ने उनके उस वक़्त के एक फ़िल्म में भी ऐक्ट किया जो कश्मीर छात्रों के ऊपर बन रही थी. तो इस तरह पल्लव को मैं मान कर ही चल रहा था कि वे काम करेंगे जो बाद में उनसे मिलकर फ़ाइनल हो गया.
मयुख पाल - एक शाम मेरे मोबाइल पे कॉल आया. उधर से आवाज़ आयी, आर्यन जी बात कर रहे है? मैने कहा, जी कहिए.
"मैने सुना है कि आप एक फ़िल्म बना रहे है. थोड़ा बताइए मुझे क्या मामला है"
और इस तरह मयुख से उस शाम लगभग दो घंटे बातें हुई. बाद में मै उनसे कोलकाता में मिला और बातें और क्लीर हुई. मयुख एक प्रोफ़ेशनल एडिटर है, कोलकाता दूरदर्शन में काम रहे, अनुभवी भी है. मेरा मेरे लिए वही जिसका शायद मुझे तलाश था. एकदम शांत सहज सा बंदा. जितना टेक्निकल उतना ही आर्टिसटिक भी. मयुख ने बाद में सुभाष जी के एक जवाब में कहा था कि उन्होंने thegirl क्यूँ join किया. उनके बातों का हिस्सा नीचे पेस्ट कर रहा हूँ जो thegirl के इंस्टा पेज से लिया गया है.
“I have been in the film line for a long time. From struggling to getting into film school to working with Doordarshan, I met a lot of aspiring film-makers. Someone wanted to replicate Spielberg while the other was a Nolan type. Everyone had a name they wanted to follow but eight months back when I received the details of “The Girl” as a WhatsApp forward, I called on the given number. The phone number belonged to Aaryan. We had an in-depth conversation. That was the first time when in the very first call I talked on the phone for more than two hours. After meeting Aaryan I realized that this boy doesn’t want to make cinema like anybody else.
He has his language and his own frame. That was the time when I decided to work with him. For me, the journey of “The Girl” began and since then, a few people have joined the team. Talking with Aaryan made me feel that all of us are on a journey.
That journey is of “The Girl” and also mine”
सुमंत्रो मुखर्जी - सुमंत्रो को मैंने स्वराज इंडिया के साथ काम करते हुए जाना. सुमंत्रो कम बोलता और कैमरे पर उसको मैने लगकर काम करते हुए देखा था, इसलिए सुमंत्रो मेरे दिमाग़ में था, पर सुमंत्रो से पहले मेरी बातचीत आफ़ताब जी से चल रही थी, जब मैं दिल्ली के लिए निकला था तब ग़रीब रथ के चेयर कार में बैठे बैठे आफ़ताब को मैने फ़ेसबूक के माध्यम से ढूँढा था, उनका डोक्यूमेंट्री फ़िल्मों में अच्छा काम था. बाद में नम्बर इक्स्चेंज हुए और हमारी बातें हुई. वे तब झारखंड में एक प्रोजेक्ट पे काम कर रहे थे और उनका आना केवल एक शाम के लिए दिल्ली में हो रहा था. अगली सुबह वे गोहाटी के लिए निकलने वाले थे. मैने उनसे कहा, अपन को केवल पंद्रह मिनट ही चाहिए, आप एकबार स्टोरी सुन लीजिए आपको अच्छा लगे तो आगे बात करेंगे. और इस तरह अपनी व्यस्तता में भी आफ़ताब ने मिलना तय किया. हम पीवीआर अनुपम के पास मिले. और प्रोजेक्ट पे आधे घंटे तक बातें होती रही. अंततः उन्होंने कहा कि मैं काम करूँगा. अब आफ़ताब पहले ही उतने अच्छा कमा रहे थे, ऐसे में यह क्लीर कर देना ज़रूरी था कि मैं उनको कुछ नहीं देने वाला. ईवेन हम उनका फ़्लाइट का फ़ेयर तक बीयर नहीं कर सकते थे. तब हमारे पास कुछ भी फ़ंड नहीं था. पर अच्छी बात ये रही कि आफ़ताब इस सबसे इतर काम करने को राज़ी हो गए.
उन्होंने गाँव के जो कुछ तस्वीरें मँगायी, उन्हें भेज दिया गया. पर फिर भी आफ़ताब ने तय किया कि वे शूट से पहले एकबार गाँव विज़िट करेंगे, जो मेरा thegirl से जुड़ने वालों हरेक लोगों से रिक्वेस्ट थी. मैं चाहता था कोई भी काम करने से पहले यहाँ की मिट्टी से जुड़े. पर संयोग कुछ ऐसा हुआ की हमारा प्रोजेक्ट कुछ डिले होता गया और जब तय हुआ शूट करना तब आफ़ताब के पास डेट्स नहीं थे. फिर सुमंत्रो को बुला लिया गया. सुमंत्रो कई दिनों तक गाँव में रहा, हम हरेक उस लोकेशन पे गए जहाँ हम शूट करना चाहते थे, और इस दौरान हमारी और बातें हुई, चीज़ें क्लीर हुई. लगा जिस तरह का thegirl प्रोजेक्ट है उसको एक महीने या किसी तय समय में पूरा नहीं किया जा सकता. ऐसे में कोई कैसे इतना दिन लगातार रहे. सुमंत्रो ने मुझसे कहा, आप ही इस फ़िल्म का सिनेमेटोग्राफ़ी कीजिए. और अंततः यही हुआ.
ताबिश - ताबिश उन चंद बन्दों में रहा जिसके साथ मैने बहुत पहले thegirl का idea भर शेयर किया था. तब मैं thegirl को लिख ही रहा था पर चाहता था कि कम से कम बच्चों का वर्कशॉप शुरू हो जाए. यही बात मैने उसको एक दिन बातचीत में कहा कि मैं चाहता हूँ तुम यहाँ आ जाओ और बच्चों का वर्कशॉप लो. अब ये ताबिश का thegirl के ऊपर अपना विश्वास था कि वह मुंबई का अपना काम छोड़कर आने को राज़ी हो गया. उसने कहा, टिकट बनवा दो. मैं पैसें न होने के कारण यह भी नहीं कर पाया. फिर ताबिश लगभग तैतिस घंटे से ज़्यादा जेनरल डिब्बे में मरता हुआ बिहार पहुँचा. अब यह ताज्जुब की बात है कि आज जब हम फ़िल्म का पचास प्रतिशत शूट कर चुंके है, ताबिश अब भी गाँव में हमारे साथ डटा हुआ है और फ़िल्म की शूट में हेल्प कर रहा.
अर्पित चिकारा - अर्पित जब thegirl की टीम से जुड़ा, तब कई चीज़ें आसान हुई. पर जब अर्पित से thegirl की आयडीअ पे बात होती थी, तब वह आसाम के किसी गाँव में था. रात को हमारी इस प्रोजेक्ट पे बातें होती थी. पर जब हमने फ़िल्म शूट शुरू किया तब निशान्त फ़ंड वग़ैरह का काम देखने के लिए टीम का हिस्सा थे. उसने कई जगहों पे thegirl की बात को पहुँचाया. पर अचानक हुए तबियत ख़राब ने उसे गाँव से लौटने को मजबूर कर दिया. उसे दिल्ली अपने परिवार के पास लौटना पड़ा. बाद में निशान्त के काम को अर्पित ने बेहद संजीदगी से आगे बढ़ाया. शुरू शुरू में thegirl के लिए जो भी मैने लिखा उसे स्मृति जी ने ही अनुवाद किया बाद में सुभाष जी-निशान्त-कुलदीप कुछ दिनों तक इस काम को देखते रहे फिर अर्पित के हिस्से अनुवाद के साथ और भी कई जिम्मेदारियाँ आयी. अर्पित की ख़ास बात ये थी कि अनुवाद में वह अपनी क्रीएटिव छाप छोड़ता. वह कुछ न कुछ मोडीफ़ायद कर देता, उसका राइटिंग स्किल अच्छा था जिसे बाद में thegirl का ब्लॉग पढ़ते हुए मुझे कई लोगों ने कहा भी. अर्पित के टीम में आ जाने से यह हुआ कि मैं थोड़ा अपने काम पे फ़ोकस करने लगा. उसे जब जितने वक़्त में जो काम मिलता वह कर देता. इससे काम करने और अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने में हमें बहुत मदद मिली.
ये लोग वे लोग थे जिन्होंने thegirl की कहानी में अपना विश्वास दिखाया और साथ काम करने को आगे आए. इसके अतिरिक्त और भी कई लोग ऐसे मिले जो मेरे लिए मेंटॉर की तरह रहे. उनके बारे में मैं नीचे लिख रहा हूँ-
सुरेन्द्र राजन - सुरेन्द्र राजन जी जी से मैं छतरपुर के गांधी आश्रम में मिला था. मेरे एक घनिष्ट मित्र संजय जी ने बताया था कि सुरेन्द्र राजन पन्ना में है, चाहो तो मिल सकते हो. बाद में गांधी आश्रम की डेमंती दी से मैं एक शाम बात कर रहा था, मेरी यात्रा और फ़ोटोग्राफ़ी पे बातें चल रही थी, डेमंती दी उत्साहित होकर बोली तुम तो दादा (सुरेन्द्र राजन) की तरह हो, तुम्हें तो उनसे ज़रूर मिलना चाहिए. मैं तो मिलना चाहता ही था. यह ग़ज़ब संयोग बैठा कि डेमंती दी भी उन्हें जानती थी. डेमंती दी ने दादा को फ़ोन किया. उस शाम मेरी सुरेन्द्र राजन जी से पहली बार बातें हुई. फिर बाद में कई दफ़े.
उस वक़्त मैं thegirl के लिए खजूराहों में हो रहे एक आवसीय सेसन के लिए गया था जिसे सहानियो और उसके दोस्तों ने गोंतरि (यहाँ पढ़े) नाम से ओर्गेनाइज किया था.
गाँव का पुल |
अभी हाल ही में मैं राँची में था. वहाँ भू-वैज्ञानिक व प्रोफेशर नीतीश प्रियदर्शी से मुलाक़ात के बाद मेरे उत्साहित बोल पे मेरे एक दोस्त ने कहा, "जैसे जैसे thegirl की जर्नी आगे बढ़ती जा रही है ऐसा जान पड़ता है आप thegirl को नहीं बना रहे, यह फ़िल्म आपको बना रही है"
लौटते हुए मैने प्रोफ़ेसर नीतीश प्रियदर्शी का एक फ़ोटो ले लिया. |
वे सही कह रही थी. पिछले साल भर में thegirl के सिलसिले में जाने अनजाने मेरा बहुत लोगों से मिलना हुआ, और उनसे मिलना कुछ ऐसा ही रहा जैसे कि सबकुछ thegirl की भूमिका में ही पहले से तय थी.
thegirl की जर्नी लगभग डेढ़ साल पहले शुरू हुई थी. उन दिनों मैं सिक्किम में था. गंगटोक में दो दिन हुए थे. एक शाम मैं वहीं एक होटल से खाना खाकर निकल रहा था. होटल एमजी मार्केट में था और ठीक सामने ही एक बीयर बार. मैने सोचा अंदर हो लिया जाए. बार के गेट को मैंने जोड़ से धक्का दिया, जैसे ही गेट खुला, तेज़ आवाज़ में संगीत मेरे कानों में पड़ी. मैं अंदर जाकर इधर उधर देखता हुआ एक जगह बैठ गया, सामने कुछ मेरे उम्र के ही युवा लोग गिटार पे एक गाना गा रहे थे. मैं कुछ देर तक उन्हें देखता रहा. थोड़ी देर में जब उनलोगों ने अपना गाना ख़त्म किया, संयोग से वे सभी मेरे पास आकर ही बैठे. मुझे देख सहज ही हाय-हेल्लो हुई, सबने हाथ मिलाते हुए अपना अपना नाम बताया. एक बात यहाँ जो मैने नोटिस किया वो उनलोगों का हाथ मिलाने का तरिका. हाथ मिलाते हुए वे बड़ी ख़ूबसूरती से हाथों की उँगलियों को फँसा लेते थे और अंदर की आओर मोड़ लेते. मेरे अब तक के अनुभव में यह अनोखा तरिका था हाथ मिलाने का.
अपने बारे में बताते हुए मैने अपनी यात्राओं के अनुभव साझा किए और उनलोगों को अपना photography वेबसाइट दिखाया. जो लोग कम यात्रा कर पाते है वे अक्सर ज़्यादा यात्रा करने वाले लोगों से कनेक्ट करते है. बातें होती रही, और इसी दौरान उन्होंने मेरे लिए भी बीयर मँगवाया. मैने उनसे उनकी म्यूज़िक पे भी बातें की, सिक्किम में कैसे कैसे आर्ट उभर रहा है व सिक्किम के नाट्य विद्यालय इस सब पे भी. उनलोगों को लगा कि एक बाहर का बंदा सिक्किम के बारे में कैसे इतना जानता है, ख़ासकर उन्हें इस बात का बहुत अच्छा लगा, और इसी बीच उनमें से एक ने बीड बनाकर मेरी आओर बढ़ा दिया. क्राउड पूरी तरह नया था, मैने कहा मैं सिगरेट लेना पसंद करूँगा.
बातें होती रही. उनमें से एक बंदा जो मेरी ट्रैव्लिंग स्टोरी में ख़ूब रुचि ले रहा था, उसने मुझसे पूछा "आपका आगे का क्या प्लान है?"
मैने कहा, अब सोच रहा हूँ यहाँ से गोहाटी के लिए निकल जाऊँ.
इसपर उसने कहा, "आप ऊपर नहीं जाएँगे?"
"ऊपर जाना ज़्यादा एक्सपेंसिव है. प्राइवट टैक्सी लेना पड़ेगा. शेयर का कोई उपाय नहीं" मैने लगभग बीयर की की ख़ाली बोतल नीचे रखते हुए कहा. उसने एक और बीयर का इशारा काउंटर की आओर किया. मैने कहा, अब हो गया दोस्त. छोड़ दो.
"आप आराम से पियो. और आप चिंता न करो मैं आपको अपने टैक्सी से अपने गाँव ले चलूँगा. वहाँ आप मेरे घर कुछ दिन रुकना." मुझे लगा उसपर बीड का असर है शायद. बातों बातों में उसने बताया कि वह टैक्सी चलाता है, और उसे भी घूमना बहुत पसंद है, मुझे घूमाते हुए वह भी घूम लेगा.
रात के लगभग साढ़े नौ बज रहे थे, मैं जहाँ रुका था उसने कहा था नौ बजे तक आ जाने को वरना गेट बंद हो जाएगा. मुझे लगा अब लौट जाना चाहिए. लौटते हुए हमने नम्बर साझा किए और अन्य लोगों से भी फ़ेसबूक पर जुड़ा. बाहर जैसे ही निकला ठंडी हवा ने जैसे आक्रमण कर दिया हो. लौज लौटते हुए मैं सोच रहा था कि सिलीगुड़ी से आते हुए उस ड्राइवर का बताया ज्ञान कितना काम आया आज. अक्सर यात्राओं में मैं ड्राइवर के साथ बैठना पसंद करता हूँ, इससे कई लोकल बातें पता चल जाती है. सिलीगुड़ी से जब एक लम्बी गाड़ी में बैठा था तब ड्राइवर कोई लोकल गाना बजा रहा था फिर मेरी उससे इनसब पर बातें होने लगी थी.
लौज का दरवाज़ा बंद हो चुका था. थोड़ी मसक्कत के बाद मैं अंदर आ गया. गंगटोक में रहते हुए दो दिन हो गए थे, आज का पूरा दिन नीचे के एक गाँव उतरने और फिर ऊपर चढ़ने में बीत गया था. बिस्तर पर लेटे-लेटे मैं सोच रहा था कि क्या कल वह आएगा, मैं सोच रहा था कि अगर वह आता है तो कुछेक दिन के लिए उसके गाँव निकल जाऊँगा फिर वहाँ से गोहाटी के लिए. पर मन में ऐसा भी था कि शायद वह नहीं आएगा क्यूँकि वह पी रहा था इसलिए शायद ऐसा कह गया.
गंटोक का एमजी मार्केट |
होटल आया कपड़े बैग में रखे. कैमरा सब पैक किया. पर अब भी मन अनमना सा था. मैं बिस्तर पर लेट गया. थोड़ी देर रुकी हुई पंखे की डंडी देखता रहा. मोबाइल निकालता फिर लॉक खोलकर लॉक लगा देता और नीचे रख देता. ऐसा लग रहा था जैसे मैं अब और यात्रा करने के मूड में नहीं हूँ. बीते कुछ वर्षों में बहुत कुछ ज़मीनी अनुभव हुए थे सब कुछ अंदर अंदर ही उबला रहा था जैसे. पर अब भी कुछ तय नहीं कर पा रहा था कि क्या किया जाए!
सिक्किम बस |
मैने मोबाइल निकाला, उस टैक्सी वाले दोस्त को कॉल किया और उससे कहा कि फिर कभी मिलते है. मेरा मूड नहीं है अभी ऊपर की आओर जाने का. सामान मैं पैक कर चुका था, थोड़ी देर में होटल से घूमता फिरता गंगटोक बस स्टॉप पे पहुँचा. संयोग से बस में सीट मिल गयी. आमतौर पर बस में सीट नहीं मिलती है, क्यूँकि टैक्सी के बजाय बस का भारा बहुत कम होता है.
बस में सफ़र करते हुए मैने गोहाटी के लिए ट्रेन में टिकट ले लिया. पर शाम होते होते जैसे जैसे बस सिलीगुड़ी के नज़दीक आती गयी मेरा मन और भारी होता गया. बस स्टॉप पे उतरते हुए भी रेलवे स्टेशन की आओर जाने का मूड नहीं था. सो काफ़ी देर तक बस स्टॉप पे ही बैठा रहा. लगभग घंटे भर बाद मैने एक बस सीतामढ़ी के लिए देखा. सीतामढ़ी मेरा होम टाउन है. मैने सोचा अब घर ही निकल चलते है. घर चलने के ख़याल से मेरा मन थोड़ा हल्का हुआ. लगा सारा मन यहीं तक आने को था जैसे. मुझे बस में एक सीट मिल गयी. रात भर की सफ़र थी, सुबह बस मधुबनी होते हुए सीतामढ़ी नौ बजे के आसपास जा खड़ी हुई.
मम्मी को कॉल करने पे पता चला मम्मी नानी के साथ हॉस्पिटल में है. नानी की उम्र लगभग तेहतर साल थी. वह बीते कुछ महीनों से बीमार चल रही थी. मैं सीधा हॉस्पिटल पहुँचा, सब एकदम ख़ुश. मम्मी को तो एकदम से लगा मैं आसमान से उतर आया हूँ. नानी कुछ बोल नहीं पायी, पर उनकी भी आँखें फैली हुई थी. वह अपनी जीवन की अंतिम हिस्सों में ही थी. तीन दिन बाद ही नानी का देहांत हो गया. मुझे संतोष हुआ कि अंतिम पलों में मैं उनके साथ रह पाया. वह मुझे और मेरी मम्मी दोनों को ऐसे डुलार करती थी जैसे हमदोनों ही उनके बच्चे हो.
नानी के जाने के बाद मैं घर आ गया. अपने गाँव में लगभग महीनों रहा. सबकुछ देखता सुनता रहा. लगा अबकी गाँव को जी रहा हूँ. पैदा होने भर से वह जगह आप जी नहीं लेते, ऐसे में भले वह जगह आपकी हो गयी हो पर ज़रूरी नहीं कि आप भी उस जगह के हो गए हो.
गाँव |
यह वह समय था जब मैने सबकुछ बहुत नज़दीक से अलग संवेदना के साथ देखा. गाँव की अपनी सुस्ती, चहल-पहल. नदी-खलिहान और जंगल. और इन सबके बीच सौकडों बच्चे आज भी उसी तरह स्कूल जा रहे, स्कूल से बंक मारकर आज भी चौरी में भाग जा रहे, पोखड में नहाना उनकी दिनचर्या है. फिर यहाँ से thegirl की कहानी का जन्म हुआ.
यह डिज़ाइन पूरी तरह गाँव के लोगों द्वारा बनाया गया. |
जब thegirl का idea मेरे दिमाग़ में आया तब ऐसा नहीं था कि कहानी का शुरू से लेकर अंत तक का प्लॉट सबकुछ तय हो गया था. पर एक चीज़ जो मैने तय किया था वो ये कि मैं इस फ़िल्म को बिना किसी लाग-लपेट के बनाऊँगा, गाँव के ही लोग काम करेंगे, और वे ही असिस्ट भी. फ़िल्म बनाने में यह मेरा दूसरा अटेम्पट होता इसलिए मैं टीम में लोगों के चुनाव को लेकर भी सतर्क रहना चाहता था. सतर्कता ऐसे कि जिनके साथ पहले काम किया है, उनको अप्रोच नहीं करूँगा.
इन दिनों मेरी एक दोस्त थी, दिल्ली में अमर-उजाला में पत्रकार थी. उनसे लम्बी लम्बी बातें होती इस फ़िल्म को लेकर. वह कुछ बताती मैं कुछ ऐंड करता. फिर संजय जी, स्लीनीयो, चिंटू, ताबिश, निशांत, सुभाष जी और कुलदीप ये वे लोग रहे जिनसे लगातार बातचीत होते होते यह प्रोजेक्ट अपना रूप लेती रही.
इन्हीं दिनों मैं टीम में कुछ लोगों की तलाश में दिल्ली आया. दिल्ली आकर लोगों की तलाश तेज़ी से निकल पड़ी. कई जगह मैसेज फ़ॉर्वर्ड हुआ, कई रेसपोंस भी आए. बहुतों ने पूछा आपने पहले क्या काम किया है, किसी ने कहा पचीस हज़ार में पूरा फ़िल्म शूट कर दूँगा तो किसी ने कहा तुम्हारे पास बजट तो है नहीं. पहले कुछ कमा लो, सेविंग बना लो. किसी ने कहा फ़िल्म बनाना है तो मुंबई जाओ, बिहार में कहीं कोई फ़िल्म बनाता है क्या!
मैने इस तरह के कई बोल सुने. पर मैं अपनी तलाश में लगा रहा, और आज कई लोग इतनी मज़बूती के साथ टीम में खड़े है कि उनके साथ से मुझे साहस मिलती है. ये ही वे लोग है जो thegirl की पिलर है, मज़बूती है.
पल्लव मित्रा - फ़िल्म बनाते हुए मुझे तीन ठोस लोग चाहिए था, एक एडिटर. दूसरा, सिनेमेटोग्राफर. और तीसरा, साउंड का कोई बंदा. साउंड के लिए जिनका नाम पहले से मेरे दिमाग़ में था वो पल्लव का ही था. पल्लव से मैं 2016 जुलाई में पहली बार मिला था. उस वक़्त पल्लव फ़िल्म स्कूल SRFTI में थे और मैं भूटान जाने के लिए कोलकाता में एक रात ठहरा था. अगली सुबह मैं और मेरे एक मित्र निशान्त फ़िल्म स्कूल घूमने के ख़्याल से SRFTI पहुँचे. पर अंदर जाने से गार्ड ने हमें यह कहते हुए रोक दिया कि जब तक कोई जानने वाला न हो आप अंदर नहीं जा सकते. मैने कहा, है न जानने वाला. गार्ड ने पूछा, कौन? मैने जवाब दिया विकास. जबकि कोई विकास से मेरी पहचान नहीं थी. गार्ड ने कहा विकास को फ़ोन लगाओ. और मैने फ़ोन लगाने का ऐक्टिंग किया. मैने गार्ड से कहा, अंदर जाने दीजिए, विकास का कॉल लग नहीं रहा. इस पर गार्ड कुछ सोचते हुए बोला, अरे हाँ! आज उसका शूट है वह उसमें बिज़ी होगा.
इस तरह एक बंदा साइकल पर बैठा हमारी इस पूरी बातचीत को सुन रहा था. वह समझ गया था कि ये लोग अंदर आना चाहते है पर किसी को जानते नहीं. वह फट से गार्ड के पास आया और बोला, मैं इनलोगों को जानता हूँ और उसने अपने नाम पर एंट्री करवा कर हमें अंदर ले गया. वह बंदा पल्लव ही था. उसने हमें विकास से भी मिलवाया और संयोग देखिए कि मैने और निशान्त ने उनके उस वक़्त के एक फ़िल्म में भी ऐक्ट किया जो कश्मीर छात्रों के ऊपर बन रही थी. तो इस तरह पल्लव को मैं मान कर ही चल रहा था कि वे काम करेंगे जो बाद में उनसे मिलकर फ़ाइनल हो गया.
पल्लव का लेटेस्ट फ़ोटो जो अभी हाल में thegirl की साउंड पे काम के दौरान मैने क्लिक किया |
मयुख पाल - एक शाम मेरे मोबाइल पे कॉल आया. उधर से आवाज़ आयी, आर्यन जी बात कर रहे है? मैने कहा, जी कहिए.
"मैने सुना है कि आप एक फ़िल्म बना रहे है. थोड़ा बताइए मुझे क्या मामला है"
और इस तरह मयुख से उस शाम लगभग दो घंटे बातें हुई. बाद में मै उनसे कोलकाता में मिला और बातें और क्लीर हुई. मयुख एक प्रोफ़ेशनल एडिटर है, कोलकाता दूरदर्शन में काम रहे, अनुभवी भी है. मेरा मेरे लिए वही जिसका शायद मुझे तलाश था. एकदम शांत सहज सा बंदा. जितना टेक्निकल उतना ही आर्टिसटिक भी. मयुख ने बाद में सुभाष जी के एक जवाब में कहा था कि उन्होंने thegirl क्यूँ join किया. उनके बातों का हिस्सा नीचे पेस्ट कर रहा हूँ जो thegirl के इंस्टा पेज से लिया गया है.
“I have been in the film line for a long time. From struggling to getting into film school to working with Doordarshan, I met a lot of aspiring film-makers. Someone wanted to replicate Spielberg while the other was a Nolan type. Everyone had a name they wanted to follow but eight months back when I received the details of “The Girl” as a WhatsApp forward, I called on the given number. The phone number belonged to Aaryan. We had an in-depth conversation. That was the first time when in the very first call I talked on the phone for more than two hours. After meeting Aaryan I realized that this boy doesn’t want to make cinema like anybody else.
He has his language and his own frame. That was the time when I decided to work with him. For me, the journey of “The Girl” began and since then, a few people have joined the team. Talking with Aaryan made me feel that all of us are on a journey.
That journey is of “The Girl” and also mine”
L_R अनिकेत, मयुख जी, सुभाष जी, और मैं. फ़िल्म स्कूल कोलकाता. |
सुमंत्रो मुखर्जी - सुमंत्रो को मैंने स्वराज इंडिया के साथ काम करते हुए जाना. सुमंत्रो कम बोलता और कैमरे पर उसको मैने लगकर काम करते हुए देखा था, इसलिए सुमंत्रो मेरे दिमाग़ में था, पर सुमंत्रो से पहले मेरी बातचीत आफ़ताब जी से चल रही थी, जब मैं दिल्ली के लिए निकला था तब ग़रीब रथ के चेयर कार में बैठे बैठे आफ़ताब को मैने फ़ेसबूक के माध्यम से ढूँढा था, उनका डोक्यूमेंट्री फ़िल्मों में अच्छा काम था. बाद में नम्बर इक्स्चेंज हुए और हमारी बातें हुई. वे तब झारखंड में एक प्रोजेक्ट पे काम कर रहे थे और उनका आना केवल एक शाम के लिए दिल्ली में हो रहा था. अगली सुबह वे गोहाटी के लिए निकलने वाले थे. मैने उनसे कहा, अपन को केवल पंद्रह मिनट ही चाहिए, आप एकबार स्टोरी सुन लीजिए आपको अच्छा लगे तो आगे बात करेंगे. और इस तरह अपनी व्यस्तता में भी आफ़ताब ने मिलना तय किया. हम पीवीआर अनुपम के पास मिले. और प्रोजेक्ट पे आधे घंटे तक बातें होती रही. अंततः उन्होंने कहा कि मैं काम करूँगा. अब आफ़ताब पहले ही उतने अच्छा कमा रहे थे, ऐसे में यह क्लीर कर देना ज़रूरी था कि मैं उनको कुछ नहीं देने वाला. ईवेन हम उनका फ़्लाइट का फ़ेयर तक बीयर नहीं कर सकते थे. तब हमारे पास कुछ भी फ़ंड नहीं था. पर अच्छी बात ये रही कि आफ़ताब इस सबसे इतर काम करने को राज़ी हो गए.
उन्होंने गाँव के जो कुछ तस्वीरें मँगायी, उन्हें भेज दिया गया. पर फिर भी आफ़ताब ने तय किया कि वे शूट से पहले एकबार गाँव विज़िट करेंगे, जो मेरा thegirl से जुड़ने वालों हरेक लोगों से रिक्वेस्ट थी. मैं चाहता था कोई भी काम करने से पहले यहाँ की मिट्टी से जुड़े. पर संयोग कुछ ऐसा हुआ की हमारा प्रोजेक्ट कुछ डिले होता गया और जब तय हुआ शूट करना तब आफ़ताब के पास डेट्स नहीं थे. फिर सुमंत्रो को बुला लिया गया. सुमंत्रो कई दिनों तक गाँव में रहा, हम हरेक उस लोकेशन पे गए जहाँ हम शूट करना चाहते थे, और इस दौरान हमारी और बातें हुई, चीज़ें क्लीर हुई. लगा जिस तरह का thegirl प्रोजेक्ट है उसको एक महीने या किसी तय समय में पूरा नहीं किया जा सकता. ऐसे में कोई कैसे इतना दिन लगातार रहे. सुमंत्रो ने मुझसे कहा, आप ही इस फ़िल्म का सिनेमेटोग्राफ़ी कीजिए. और अंततः यही हुआ.
गाँव के लोग एक फूटेज देखते हुए. |
ताबिश - ताबिश उन चंद बन्दों में रहा जिसके साथ मैने बहुत पहले thegirl का idea भर शेयर किया था. तब मैं thegirl को लिख ही रहा था पर चाहता था कि कम से कम बच्चों का वर्कशॉप शुरू हो जाए. यही बात मैने उसको एक दिन बातचीत में कहा कि मैं चाहता हूँ तुम यहाँ आ जाओ और बच्चों का वर्कशॉप लो. अब ये ताबिश का thegirl के ऊपर अपना विश्वास था कि वह मुंबई का अपना काम छोड़कर आने को राज़ी हो गया. उसने कहा, टिकट बनवा दो. मैं पैसें न होने के कारण यह भी नहीं कर पाया. फिर ताबिश लगभग तैतिस घंटे से ज़्यादा जेनरल डिब्बे में मरता हुआ बिहार पहुँचा. अब यह ताज्जुब की बात है कि आज जब हम फ़िल्म का पचास प्रतिशत शूट कर चुंके है, ताबिश अब भी गाँव में हमारे साथ डटा हुआ है और फ़िल्म की शूट में हेल्प कर रहा.
बच्चों के साथ ताबिश |
अर्पित चिकारा - अर्पित जब thegirl की टीम से जुड़ा, तब कई चीज़ें आसान हुई. पर जब अर्पित से thegirl की आयडीअ पे बात होती थी, तब वह आसाम के किसी गाँव में था. रात को हमारी इस प्रोजेक्ट पे बातें होती थी. पर जब हमने फ़िल्म शूट शुरू किया तब निशान्त फ़ंड वग़ैरह का काम देखने के लिए टीम का हिस्सा थे. उसने कई जगहों पे thegirl की बात को पहुँचाया. पर अचानक हुए तबियत ख़राब ने उसे गाँव से लौटने को मजबूर कर दिया. उसे दिल्ली अपने परिवार के पास लौटना पड़ा. बाद में निशान्त के काम को अर्पित ने बेहद संजीदगी से आगे बढ़ाया. शुरू शुरू में thegirl के लिए जो भी मैने लिखा उसे स्मृति जी ने ही अनुवाद किया बाद में सुभाष जी-निशान्त-कुलदीप कुछ दिनों तक इस काम को देखते रहे फिर अर्पित के हिस्से अनुवाद के साथ और भी कई जिम्मेदारियाँ आयी. अर्पित की ख़ास बात ये थी कि अनुवाद में वह अपनी क्रीएटिव छाप छोड़ता. वह कुछ न कुछ मोडीफ़ायद कर देता, उसका राइटिंग स्किल अच्छा था जिसे बाद में thegirl का ब्लॉग पढ़ते हुए मुझे कई लोगों ने कहा भी. अर्पित के टीम में आ जाने से यह हुआ कि मैं थोड़ा अपने काम पे फ़ोकस करने लगा. उसे जब जितने वक़्त में जो काम मिलता वह कर देता. इससे काम करने और अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने में हमें बहुत मदद मिली.
अर्पित और मैं. खजूराहों में thegirl की सेसन के दौरान |
ये लोग वे लोग थे जिन्होंने thegirl की कहानी में अपना विश्वास दिखाया और साथ काम करने को आगे आए. इसके अतिरिक्त और भी कई लोग ऐसे मिले जो मेरे लिए मेंटॉर की तरह रहे. उनके बारे में मैं नीचे लिख रहा हूँ-
सुरेन्द्र राजन - सुरेन्द्र राजन जी जी से मैं छतरपुर के गांधी आश्रम में मिला था. मेरे एक घनिष्ट मित्र संजय जी ने बताया था कि सुरेन्द्र राजन पन्ना में है, चाहो तो मिल सकते हो. बाद में गांधी आश्रम की डेमंती दी से मैं एक शाम बात कर रहा था, मेरी यात्रा और फ़ोटोग्राफ़ी पे बातें चल रही थी, डेमंती दी उत्साहित होकर बोली तुम तो दादा (सुरेन्द्र राजन) की तरह हो, तुम्हें तो उनसे ज़रूर मिलना चाहिए. मैं तो मिलना चाहता ही था. यह ग़ज़ब संयोग बैठा कि डेमंती दी भी उन्हें जानती थी. डेमंती दी ने दादा को फ़ोन किया. उस शाम मेरी सुरेन्द्र राजन जी से पहली बार बातें हुई. फिर बाद में कई दफ़े.
उस वक़्त मैं thegirl के लिए खजूराहों में हो रहे एक आवसीय सेसन के लिए गया था जिसे सहानियो और उसके दोस्तों ने गोंतरि (यहाँ पढ़े) नाम से ओर्गेनाइज किया था.
तो मैने तय किया कि प्रोग्राम के बाद पन्ना निकल जाऊँगा. पर बाद में सुरेन्द्र राजन जी ख़ुद आश्रम आ गए. उनसे अच्छी मुलाक़ात रही, उन्होंने कहा मैं जो अभी कर रहा हूँ तुम इतनी छोटी उम्र में कर रहे हो. शुभकामनाएँ देते हुए उन्होंने एक नम्बर मुझे दिया और कहा इनसे बात करना. ये तुम्हारी हेल्प करेंगे. नम्बर सजल आनंद जी का था.
डेमंती दी और मैं. यह फ़ोटो सुरेन्द्र राजन जी ने लिया. बाद में उन्होंने whatsapp पे भेजा. |
सजल आनंद - SRFTI से पढ़े सजल जी मुंबई में रहते है. खजूराहों से लौटने के बाद एक शाम फ़ुर्सत में मैने सजल जी को कॉल लगाया. उन्होंने तुरंत पहचान लिया और बताया कि सुरेन्द्र राजन जी तुम्हारे बारे में बता रहे थे. पहली बार सजल जी से बातें होती हुई तो मुझे कई बातें समझ आयी. बाद में उनसे मुझे सिनेमा की कई बारीकियाँ समझने को मिली. मेरा मानना था कि फ़िल्म बनाने के लिए फ़िल्म देखना ज़रूरी नहीं, जबकि सजल जी कहते कम से कम इरानियन सिनेमा देखो. और इस तरह बातचीत से न जाने कितनी बातें मैं समझ पाता. आज भी वे कई जगहों पे जहाँ मैं फँसता हूँ, चीज़ों को सही से समझाते है.
राजदीप श्रीवास्तव - राजीव जी से मैं दिल्ली में thegirl के लिए हुए टॉक के बाद मिला था. उनके बारे में मुझे सजल जी ने ही बताया था. बिहार से ही राजीव अक्सर बाहर ही रहे थे और आर्ट में दिलचस्पी रखते. एक समय पे सजल जी के साथ मिलकर उन्होंने फणीश्वर नाथ रेणु के ऊपर काम भी किया था. मैने राजीव जी से मिलने उनके घर वसंत विहार गया. पूरी कहानी सुनने के बाद उनको मैने फ़िल्म के फूटेज भी दिखाए. यहाँ एक दिलचस्प बात यह हुई कि, फ़िल्म की कहानी सुन रही उनकी बेटी उनसे पूछती है कि, पापा उस लड़की के पास स्कूल जाने के लिए कार क्यू नहीं है. वह पैदल क्यू जाती है.
फूटेज देखने के बाद राजीव जी ने कहा, बिहार में इस तरह का काम होना बहुत ज़रूरी है और इस तरह हमारी और कई सारी बातें हुई. उन्होंने विशेष मेरे लिए झाल-मुड़ी बनवाया जो आमतौर पे बिहार में खायी जाती है.
रविंद्र डूबे - डूबे जी से मुलाक़ात संजय जी के माध्यम से हुई थी. लगभग अरसठ साल के डूबे जी जंगलों में भटकते हुए एकदम युवा लगते, उनकी एनर्जी देखते बनती थी. उन्होंने फ़ॉरेस्ट विभाग में चालीस साल से ज़्यादा समय बिताया था. thegirl की जर्नी में डूबे जी मेरे लिए ऐसे रहे जिन्होंने सबसे महत्वपूर्ण पक्ष को समझने में मेरी मदद की. अभी तक नदी जल जंगल को लेकर मेरी जो समझ बनी थी वो ख़ुद यात्रा करते हुए ही आयी थी. डूबे जी ने थोड़े तरीक़े से जंगल को समझने में मदद किया. जब मैं गोंतरि के लिए खजूराहों गया था, उससे पहले लगभग दस-बारह दिनों तक मैं-डूबे जी और संजय जी MP व CG के जंगलों में भटकते रहे थे. और इस दौरान के समय ने thegirl के लिए सोचने का सुंदर समय दिया. यह वक़्त था जब मैं thegirl की स्क्रिप्ट में जल जंगल को और ज़िंदा कर रहा था. और शायद आज इन्हीं वजहों से नदी जल जंगल thegirl के प्रमुख कैरेक्टर्स है.
रविंद्र डूबे - डूबे जी से मुलाक़ात संजय जी के माध्यम से हुई थी. लगभग अरसठ साल के डूबे जी जंगलों में भटकते हुए एकदम युवा लगते, उनकी एनर्जी देखते बनती थी. उन्होंने फ़ॉरेस्ट विभाग में चालीस साल से ज़्यादा समय बिताया था. thegirl की जर्नी में डूबे जी मेरे लिए ऐसे रहे जिन्होंने सबसे महत्वपूर्ण पक्ष को समझने में मेरी मदद की. अभी तक नदी जल जंगल को लेकर मेरी जो समझ बनी थी वो ख़ुद यात्रा करते हुए ही आयी थी. डूबे जी ने थोड़े तरीक़े से जंगल को समझने में मदद किया. जब मैं गोंतरि के लिए खजूराहों गया था, उससे पहले लगभग दस-बारह दिनों तक मैं-डूबे जी और संजय जी MP व CG के जंगलों में भटकते रहे थे. और इस दौरान के समय ने thegirl के लिए सोचने का सुंदर समय दिया. यह वक़्त था जब मैं thegirl की स्क्रिप्ट में जल जंगल को और ज़िंदा कर रहा था. और शायद आज इन्हीं वजहों से नदी जल जंगल thegirl के प्रमुख कैरेक्टर्स है.
डूबे जी के साथ |
मेघनाथ अखरा - कई बार नेशनल अवार्ड विनर अखरा जी (मेघनाथ अखरा जी ) ने झारखंड में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है. लगभग जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुँच चुंके अखरा जी से जब मेरी बातचीत पहली बार हुई थी, तब उन्होंने कहानी सुनने के बाद सीधे पूछा था मुझसे क्या हेल्प चाहते हो. मैने कहा, दादा आपके पास जीवन का इतना लम्बा अनुभव है आपके पास तो कुछ भी मिले वह मेरे लिए बहुत कुछ है. और इस तरह लगभग दो महीने के बाद मैं उनसे राँची अखरा के ऑफ़िस में मिल पाया. जब प्रोफ़ेसर नीतीश जी के यहाँ बैठा था तब बातचीत में प्रोफ़ेसर ने भी कहा था, उन्होंने यहाँ अच्छा काम किया है.
अखरा का कृतिमान. मुझे मेघनाथ जी के साथ फ़ोटो लेने के बजाय यह विडीओ लेना ज़्यादा अच्छा लगा.
अखरा जी से काफ़ी बातें हुई और वहीं मैं एक और ग़ज़ब व्यक्तित्व से मिला वे थे बीजू टोपे. मेघनाथ जी के साथ काम करते हुए बीजू ने ख़ुद की भी खोज की थी. उन्होंने कई ऐसी फ़िल्मों का निर्देशन किया था जिसे अभी भी वे सही प्लेटफ़ॉर्म नहीं दे पाए थे. अखरा का फ़िल्म लाइब्रेरी भी मुझे बहुत पसंद आया. रात भर बीजू से बातें होती रही. रात को मैं उन्हीं के यहाँ रुका था. अखरा जी से मेरी बिहार में आर्ट कल्चर की शुरुआत करने के बारे में भी बातें हुई.
तो इस तरह thegirl की जर्नी अभी तक की ऐसी रही. यह फ़िल्म हमसबके लिए एक फ़िल्म स्कूल जैसा है. जहाँ हम बहुत कुछ सिख रहे. कैमरे के ए बी सी डी. लोगों को अप्रोच करना. डॉक्युमेंट्स बनाना सबकुछ. और हम कामयाब भी हुए. लोगों ने हमपे विश्वास जताया है तभी हमारे पास आज तक के डेट में पचास हज़ार से अधिक के फ़ंड आए है. ये फ़ंड देने वाले वे लोग है जो अलग तरह की सिनेमा पे यक़ीन रखते है, जो आज इस विश्वास के साथ खड़े है कि कम्यूनिटी का अपना सिनेमा हो सकता है. और thegirl इनसबकी जर्नी है, केवल मेरी नहीं.
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