जब हर बार थक जाता है जिस्म नींद की आगोश में जब ऊब सा जाता है बदन सोये-सोये यूँ ही खोए से तब कुछ देर के लिए ही सही यह दूरी मिलों लंबी जान पड़ती है लगता है एक-एक पल एक अरसा सा है जिसमें मैं निरंतर जलता जा रहा हूँ।। नींद की यह अपनी खूबी है कि वहाँ कोई सीमा नहीं ना ही कोई बंधन है।। तुमने आज संदेशा भिजवाया है कि तुम शनिचर की संध्या पे मिलोगी पर मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि आज तो मंगलवार ही है।। क्या तुम कभी मंगलवार से शनिचर के बीच की दूरी को समझ पाओगी तुम गणित लगा पाओगी कि इन दिनों में कितने घंटे होते है और उन घंटो में कितनी मिनटे होती है और क्या ये भी महसूस कर पाओगी कि उन प्रत्येक मिनट के हर एक सेकंडों में मैं कैसे जलता हूँ? और क्या तुम मेरे शरीर के उस ताप को सहन कर पाओगी? जब तुम आओगी तब यह ताप मिश्रित सुख की ठंडक में बदल चुका होगा जिसकी छाव में बैठकर हम घंटों बातें करेंगे मैं भूल जाऊंगा कि तुम्हारे विरह में मैं कैसे जल रहा था मैं यह भी भूल जाऊंगा कि अब से कुछ ही देर बाद तुम चली जाओगी और फिर से वही आग मुझे झुलसायेगी ...
चप्पा-चप्पा...मंजर-मंजर...